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________________ ८३४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) मनोनिरोध या मनःसंवर की इस गलत प्रक्रिया को अपनाने पर मनरूपी अश्व की तेज तर्रार उत्कृष्ट एवं परिशुद्ध चिन्तनशक्ति रूपी गति से आम्रवों का निरोध (संवर) और कर्मों का आंशिक क्षय (निर्जरा) करके सर्वकर्ममुक्ति रूप मोक्षस्थलगन्तव्यस्थल तक शीघ्र पहुंच सकता था, परन्तु वह मनोनिरोध या मनःसंवर की इस गलत प्रक्रिया को अपनाता है, और मन की शुद्ध गति-प्रगति को रोक देता है, जिससे वह संसाररूपी घोर वन में ही पड़ा रह जाता है, मन की सहायता न मिलने से वह इस घोर संसार वन को पार नहीं कर पाता। प्रथम अश्वारोही के समान ऐसे व्यक्ति मनरूपी अश्व को वश में न कर पाने के कारण मद्य, गांजा, भांग, चरस, तम्बाकू आदि नशीली चीजों का सेवन करके अपने मन को तामसिक व जड़-मूढ़ बना लेते हैं। इन नशीली चीजों का सेवन करके मन को एकाग्र करने की धुन में वे मन को अमुक समय तक बिलकुल विचारशून्य, मूर्छितवत् बना लेते हैं, अथवा उन्मत्त के समान मन को विवेकशून्य, सम्यग्ज्ञानशून्य, बनाकर मन की विचारशक्ति, उसकी चिन्तन-मनन अध्यवसाय-शक्ति, तथा ज्ञान-विवेकशक्ति को जड़वत् लुप्त कर देते हैं। ___ फलतः विवेक-विचारहीन मूढ़ मन से वे न तो अपना ही हित और कल्याण सोच सकते हैं, न ही दूसरों का ऐसा विवेकहीन मन न तो आनवनिरोध करके संवर-निर्जरा की साधना करने की प्रक्रिया को समझ सकता है और न ही तदनुसार अहिंसादि संवर की साधना कर सकता है। कतिपय लोग दूसरे अश्वारोही के समान हैं। वे मन और इन्द्रियों के विषयों में अत्यन्त आसक्त होकर उनके वश में हो जाते हैं। फिर जब मन रूपी अश्व उन्हें लेकर तीव्र गति से संसार के बीहड़ वन में ले जाने लगता है, जिससे वे सांसारिक दुःख, संताप और कष्टों से आकुल-व्याकुल हो उठते हैं। तब इन्द्रियों सहित उक्त भयंकर विद्रोही एवं तेज भागते हुए मन से छुटकारा पाने के लिए जूआ, चोरी, मांसाहार, मद्यपान, शिकार, परस्त्रीगमन, स्वच्छन्द यौनाचार, विलासिता, अश्लील नाच-गान, अश्लील दृश्य-दर्शन, तथा कामोत्तेजक उपन्यासों के पठन-श्रवण आदि दुर्व्यसनों के शिकार होकर स्वयं का घोर अधःपतन कर बैठते हैं, दुःखों को भुलाने के बदले अनेक नये कमों का बंधन कर लेते हैं। उनका मनरूपी घोड़ा तो और तेजी से भागता रहता है। देह तो और अधिक चंचल होकर उछल-कूद मचाता है। ऐसे मनरूपी अश्व के अश्वारोही उसको मनाने के लिए उसके इशारे पर चलते हैं। फलतः वे अनेक मानसिक एवं शारीरिक रोगों के शिकार हो जाते हैं। विषयासक्ति और विलासिता में अत्यधिक डूब जाने से उनका मन स्वयं अशान्त, अस्थिर और चंचल होकर अपने मालिक को भी अशान्त और अस्थिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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