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________________ मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८३५ कर देता है। उनका मन उत्कृष्ट शुद्ध चिन्तन शक्ति को खोकर निकृष्ट अशुभ चिन्तन ही अत्यधिक करता है। हिंसा आदि आसवों में प्रवृत्त होता है। इससे मनोनिरोध या मन का सेवर तो कोसों दूर हो जाता है। उलटे ऐसा व्यक्ति मन से आस्रव और बन्ध ही अधिकाधिक करता रहता है। निष्कर्ष यह है कि द्वितीय अश्वारोही के समान ऐसा व्यक्ति न तो मन की उत्कृष्ट एवं परिशद्ध चिन्तन शक्ति से लाभ उठाकर उसे हिंसादि आस्रवों के निरोध तथा अहिंसादि संवर की साधना में लगा सकता है और न ही मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय रूप आम्रवों को रोककर सम्यक्त्व संवर, विरति-संवर, अप्रमाद संवर और अकषाय संवर का चिन्तन-मनन एवं आचरण कर सकता है। बल्कि कभी-कभी तो ऐसा मनरूपी अश्व का. सवार भ्रष्टबुद्धि होकर आत्महत्या तक कर बैठता है, पागल और विक्षिप्त हो जाता है, उन्मत्तवत् प्रलाप करने लगता है। मनोनिरोधक ये दोनों ही उपाय अहितकर एवं गलत ___ मनोनिरोध (मनःसंवर) करने के ये दोनों ही उपाय अहितकर एवं घोर अनर्थकर हैं, इन दोनों उपायों से न तो मन मरता है, न ही वह सधता है, या वश में हो जाता है। इसलिए मन को मारने या वश में करने के ये दोनों ही उपाय गलत हैं। इनमें से एक में व्यक्ति मनरूपी घोड़े की टांग काटकर यानी नशीली चीजों का सेवन करके मन को कठित, विकृत, अस्त-व्यस्त, क्षत-विक्षत कर देता है। फलतः मन की उत्कृष्ट मनन शक्ति से जो लाभ उठाना चाहिए था, उससे वंचित हो जाता है। गीता की भाषा में ऐसे व्यक्ति कर्मेन्द्रियों को निश्चेष्ट करके मन से विविध मनोज्ञ विषयों का स्मरण करते रहते. दूसरे उपाय में, व्यक्ति स्वयं ही दुर्व्यसनों, विषयासक्ति और विलासिता का शिकार होकर तामसिक, प्रमत्त, निश्चेष्ट एवं आलस्यग्रस्त होकर पड़ जाता है, उसका मन अत्यन्त चंचल होकर भाग खड़ा होता है, वह संवर, निर्जरा की साधना में टिक नहीं पाता। अतः मनरूपी अश्व के ये दोनों ही अश्वारोही संसार रूपी घोर वन को पार नहीं कर पाते, वे वहीं कर्मों का आस्रव और बंध करके चतुगर्तिक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। मनोनिरोध या मनःसंवर का सही उपाय कतिपय व्यक्ति तीसरे अश्वारोही के समान होते हैं। वे न तो मन को जड़वत् विवेकमूढ़, विचारशून्य या उन्नत चिन्तन से शून्य बनाते हैं, और न मन को ढील देकर १. आम्रमंजरी से भावांश ग्रहण २. देखें, भगवद्गीता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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