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________________ मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य ८२१ और रुचिपूर्वक संलग्न रहते हैं। वे मनःसंवर से होने वाले प्रचुर लाभ को समझते हैं, और निष्ठापूर्वक जुटे रहते हैं।' मन पर असंयम से हानियाँ मन पर असंयम भी मन संवर के न होने में मुख्य कारण है। इसलिए मन के असंयम के बारे में भी विचार कर लेना चाहिए। मन के असंयम से सर्वाधिक बुरा परिणाम आता है-मानसिक विकृति। मानसिक विकृति से व्यक्ति के सैन, मन-मस्तिष्क और जीवन का सर्वनाश होना सम्भव है। समष्टिगत रूप से देखें सो मन का असयम एक समूची सभ्यता के पतन का कारण हो सकता है, फिर भले ही वह कितनी ही प्रगतिशील एवं प्राचीन क्यों न प्रतीत होती हो। इसके अतिरिक्त पारिवारिक, जातीय एवं राष्ट्रीय जीवन के लिए भी मन का असंयम अभिशाप सिद्ध होता है। कुछ ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ भी घटित हो सकती हैं, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से माल के असंयम से उत्पन्न होती हैं। मन का असंयम व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में विशेष रूप से वाधक होता है। जिस व्यक्ति का मन नियंत्रित नहीं है, वह सदैव अस्वाभाविक मानसिक विकारों का शिकार हो सकता है। आन्तरिक द्वन्द्व के कारण उसका मस्तिष्क असंतुलित हो सकता है। अत्यन्त अनुकूल परिस्थितियों में भी वह अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता एवं सामर्थ्य तथा सम्भावना को नहीं पहचान पाएगा, और न अपेक्षाओं की पूर्ति कर सकेगा। मनोनिग्रह रहित व्यक्ति मानसिक सुखशक्ति से रहित ..जिस व्यक्ति का अपने मन पर नियंत्रण नहीं है, उसे शान्ति नहीं मिल सकती। जिसके मन में शान्ति नहीं है, उसे सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? वह प्रायः तनावों, वासनाओं, कामनाओं, लालसाओं, मिथ्या महत्वाकांक्षाओं, तृष्णा और दुर्भावना का शिकार होकर बहुधा दुःसाध्य मानसिक रोगों से आक्रान्त हो जाता है; अथवा वह अपराधी वृत्ति का शिकार हो जाता है। यदि परिवार का मुखिया मानसिक नियंत्रण से रहित है तो उसके परिवार में अव्यवस्था, अराजकता, अनुशासनहीनता, स्वच्छन्दता एवं स्वैरविहारिता आदि दुःखद मानवीय सम्बन्ध व्याप्त हो जाना सम्भव है। जिसके फलस्वरूप वह परिवार पापाचार एवं दुर्भाग्य का अड्डा बन सकता है। इस प्रकार मन के असंयम, अनिग्रह, अनिरोध या असंवर से व्यक्ति, समाज और समष्टि की उन्नति, समद्धि और विकास के सभी द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं। .. मनोनिग्रह के बिना मनुष्य को किसी भी क्षेत्र में न तो स्थायी उन्नति प्राप्त हो +. अखण्ड ज्योति मई १९७८ से भावांश ग्रहण, पृ. ९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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