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________________ ८२०. कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) दार्शनिकों ने बहुत ही स्पष्ट रूप से अपने-अपने ग्रन्थों में बता दिया है। मनः संवर के अभाव में व्यक्ति के मन की दशा उस अश्वारोहक की सी हो जाती है, जिसको बेलगाम घोड़ा जिधर चाहे उधर ही ले दौड़ता है। बेचारा मालिक अपने को असहाय अनुभव करके घोड़े के साथ-साथ मारा-मारा फिरता है। कहने को तो वह घोड़े की पीठ पर बैठा दीखता है, परन्तु स्थिति ऐसी होती है, कि उद्दण्ड घोड़ा ही उच्छृंखल बनकर मालिक पर सवार हो जाता है। खतरा देखते हुए भी वह दुर्बल अश्वरोही उसकी पीठ पर चुपचाप बैठा रहता है, और जान बचाने की कोशिश करता है। इसी तरह जिस व्यक्ति का मन निरंकुश और उच्छृंखल होता है, उसे आत्मिक दुर्बलता के कारण मन के पीछे-पीछे दौड़ने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रहता । निरंकुश मन की भी अपनी बेढंगी चाल होती है। उसे भौतिक आकर्षण ही रुचते हैं। आध्यात्मिक विकास की दिशा में उसका अनियंत्रित - असंवृत मन जाता ही नहीं । अध्यात्म ज्ञान, ध्यान, उपासना, साधना, यम-नियम- पालन, त्याग, तपस्या आदि में उसका मन बिलकुल नहीं लगता। जन्म-जन्मान्तर के कुसंस्कारों से अभ्यस्त मन को भौतिक आकर्षणों से विरत न करने का ही परिणाम है कि उसे अभीष्ट लक्ष्य की ओर मोड़ना और संवर-साधना में लगाना अत्यन्त कठिन, नीरस और श्रमसाध्य लगता है। जैसे आवारा लड़कों को उनके अभिभावक बहुत ही प्रयत्नपूर्वक स्कूल भेजते हैं, दुकान पर बिठाते हैं तथा अन्य उपयोगी कार्य बताते हैं और उसमें लगाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु उन पर आवारागर्दी इस कदर छाई रहती है कि वे कोई न कोई बहाना बनाकर उन कार्यों से छिटक जाते हैं और पुनः अपने ही मनमाने रास्ते पर चल पड़ते हैं। सौंपे हुए महत्वपूर्ण कार्य को बर्बाद करके रख देने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती । कुसंस्कारी और आवारागर्द उच्छृंखल मन की प्रायः : ऐसी ही स्थिति है। उपासना, संवरसाधना, तप-जप की क्रिया आदि में लगाना बालू में से तेल निकालने जैसा दुरूह कार्य है, आसान नहीं है। इसलिए मन का अभ्यासपूर्वक निग्रह करना, अपने वश में करना अतीव आवश्यक है। जो लोग मनस्वी होते हैं, मन को अपनी मर्जी पर चला सकते हैं, ऐसे मनः संवृत व्यक्ति अभीष्ट आध्यात्मिक प्रगति की दिशा में अनवरत क्रम से बढ़ते हैं, भविष्य को उज्ज्वल बनाने की जहाँ भी सम्भावनाएँ होती हैं, उधर ही मन को केन्द्रित करते हैं और गतिविधियों को भी उसी ओर अग्रसर करते हुए एक दिन सफलता के सर्वोच्च शिखर पर आरूढ़ हो जाते हैं। उनका अपने मन पर अधिकार होता है, जन्म-जन्मान्तर के कुसंस्कार आड़े आते हैं तो उन्हें भी वे मनोबलपूर्वक निरस्त करके अभीष्ट लक्ष्य की ओर गति - प्रगति करते रहते हैं। मनः संवर की साधना में आने वाली कठिनाइयों का सामना भी वे पूर्ण आत्मबल के साथ करते हैं, नीरस लगने वाले कार्यों में भी वे उत्साह, श्रद्धा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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