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________________ मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य ८१९ जबर्दस्त है, साहसिक बलवान् और सुदृढ़ है। इसे वश में करना या इसका निग्रह करना तो वायु को रोकने के समान अत्यन्त दुष्कर है।' ‘योगशास्त्र' में भी कहा गया कि “आँधी की तरह चंचल मन मुमुक्षु और तपस्वी साधक को कहीं का कहीं ले जाकर पटक देता है। इसलिए योग साधक को मन का निरोध सर्वप्रथम आवश्यक है।" "जो मन का निरोध किये बिना ही योगी होने का निश्चय करता है, वह उसी प्रकार उपहास का पात्र बनता है, जिस प्रकार एक गाँव से दूसरे गाँव जाने की इच्छा करने वाला पंगु उपहास का पात्र बनता है। चूंकि कर्म का आस्रव मन के अधीन है, इसलिए मनोनिरोध होने पर कर्मास्रव भी पूर्णतया रुक जाता है। जो व्यक्ति मनोनिरोध नहीं कर पाता, उसके कमों में अभिवृद्धि होती रहती है। अतः कमों से मुक्ति प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों को समग्र विश्व में भटकने वाले स्वच्छन्द मन को रोकने का प्रयत्न करना अनिवार्य है।" व्यवहारभाष्य में कहा गया है-"प्रत्येक साधना में मनःप्रसाद (मन की प्रसन्नतानिर्मलता) ही कर्मनिर्जरा का कारण बन जाता है।"२ मन की प्रसन्नता या स्वच्छता मन की एकाग्रता पर निर्भर है। ___ 'योग वाशिष्ठ' में मनोनिग्रह पर जोर देते हुए कहा गया है-“मन की उपेक्षा से ही दुःख पर्वत-शिखर के समान वृद्धिंगत होते जाते हैं। इसके विपरीत मन को वश में करने से वे (दुःख) उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार सूर्य के ताप के सम्मुख हिम (बर्फ) नष्ट हो जाता है।" ... बौद्धधर्म के प्रमुख ग्रन्थ 'धम्मपद' में कहा गया है-"यह चित्त (मन) अतीव चंचल है। इस पर अधिकार करके कुमार्ग से इसे बचाना अत्यन्त कठिन है। इसकी वृत्तियों का कठिनता से निवारण किया जा सकता है। अतः बुद्धिमान् पुरुष इसे ऐसे ही सीधा करे, जैसे वाण निर्माता वाण को सीधा करता है। यह चित्त कठिनता से नियंत्रित होता है, क्योंकि यह अतीव शीघ्रगामी और स्वच्छन्द विचरण करने वाला है। इसलिए इसका दमन करना ही श्रेयस्कर है। दमितचित्त ही सुखवर्धक होता है।" मनःसंवर के अभाव और सद्भाव में व्यक्ति की स्थिति मनःसंवर या मनोनिरोध अथवा मनोनिग्रह क्यों आवश्यक है, यह भारतीय १. भगवद्गीता ६/३४ २. (क) योगशास्त्र ४/३६ से ३९ तक (ख) व्यवहारभाष्य ६/१९० : 'जो सो मणप्पसादो जायइ, सो निज्जरं कुणति।' ३. योगवाशिष्ठ ३/९९/४६ ४. धम्मपद ३३ से ३५ तक . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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