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________________ ८२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आरव और संवर (६) सकती है और न समृद्धि और शान्ति ही। मनःसंयम के अभाव में मनुष्य प्राप्त समृद्धि से भी हाथ धो बैठता है।' मनःसंवर से नाना उपलब्धियाँ ६ जीवन की उच्चतम आध्यात्मिक पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मनःसंवर से बढ़कर कोई भी बात महत्वपूर्ण नहीं है। मनुष्य के उज्ज्वल भावी जीवन का ढाँचा इसी बात पर निर्भर है कि वह अपने मन को वश में करता है या नहीं ? .. मनोनिग्रह का अनायास प्राप्त फल . मनोनिग्रह का एक स्वतःस्फूर्त फल है-व्यक्तित्व की पूर्णता। पूर्ण व्यक्तित्व का धनी मनोनिग्रही कठिन से कठिन एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सफल होता है। मनोनिग्रही मनस्वी होता है, वह बातूनी न होकर मुख्य कार्य पर बल देता है, कार्य में आने वाली विन-बाधाओं से वह घबराता नहीं, सुख-दुःख में सम रहता है। मन का नियंत्रण उसे निश्चंचल एवं सुदृढ़ बना देता है। और चंचलता का अभाव मन में शान्ति और स्थिरता को जन्म देता है। १. मानसिक शान्ति और स्थिरता सुख और उल्लास पैदा करती है। भगवद्गीता में भी कहा गया है-"मन प्रसत्र (स्वच्छ) हो जाने पर उस व्यक्ति के सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं। प्रसन्नचित व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।" तथा "जिसका मन भलीभाँति शान्त हो गया है, जिसका रजोगुण भी शान्त हो गया है, ऐसे पुण्य-पापरूप कल्मष से रहित सच्चिदानन्दघन ब्रह्मरूप योगी को उत्तम आनन्द (सुख) प्राप्त होता है।'' ऐसा महान् आत्मा हजारों व्यक्तियों को मन के संयम से सुख-शान्ति एवं प्रसन्नता प्राप्त करने का उपाय बता सकता है। उसके कार्य की गुणवत्ता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है। और अन्त में वह स्वाभाविक रूप से प्रायः अक्षय सुख और अभ्युदय का अधिकारी बन जाता है। ... _ ऐसा नहीं है कि उक्त व्यक्ति को परीक्षा की घड़ियों में से गुजरना न पड़ता हो, किन्तु ऐसी विकट संकटापन्न घड़ियों का समभावपूर्वक सामना करने का मनोबल और साहस उसमें कूट-कूट कर भरा रहता है। वह जिस परिवार का मुखिया होता है, वहाँ अनुशासन, व्यवस्था, पारस्परिक मधुर व्यवहार, मर्यादापालन तथा सुसंस्कारों और :: . १. मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानंद) से पृ. ११, १२. . २. वही, पृ. १२. ३. (क) प्रसादे सर्वदुःखाना हानिरस्योपजायते। . .. प्रसन्नचेतसो याशु बुद्धि पर्यवतिष्ठते॥ -भ. गीता २/६५ (ख) प्रशान्तमनसं होनं योगिनं सुखमुत्तमम्। उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ .. गीता ६/२७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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