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________________ ८00 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) प्रश्न होता है इन्द्रिय-संवर की पूर्णता की स्थिति तो उच्चतर गुणस्थानों में पहुँचने पर होती है, उसकी पूर्व भूमिका में इन्द्रिय-संवर की साधना कैसे सम्भव होगी? क्योंकि इन्द्रिय-संवर के प्रारम्भिक साधक ने अभी साधना की सीढ़ी पर पैर ही रखा है। आगे बढ़ते ही उसके समक्ष अनुकूल-प्रतिकूल रस भी आएँगे, गन्ध भी आएँगे, स्पर्श भी आएंगे और रूप या दृश्य भी आएँगे। इन्द्रियों का दमन करने की अपेक्षा विषयों का उदात्तीकरण श्रेष्ठ है एक दिन में एकदम तो उनके प्रति विरक्ति, अरुचि या विरति हो नहीं पाएगी। ऐसी स्थिति में वह क्या करे? इन्द्रियों के लिए विषयों का आकर्षण ऐसा आकर्षण है कि यदि इन्द्रियों को दमित किया जाए, अथवा मन में उठती हुई वासनाओं को सहसा दबाया . जाए, मन को विषयाकर्षणों से सहसा विरत कर दिया जाए तो इतने से ही इन्द्रियाँ शान्त नहीं हो जाएँगी, प्रत्युत वे विषय-वासनाएँ दमित होने पर अधिकाधिक वेग से उठती हैं। सैक्स मनोवैज्ञानिक ‘फ्राइड' का भी यही मत है। . परन्तु भारतीय मनीषियों ने विषयों के रस (वासना) को दमित करने के बदले, उनका उदात्तीकरण (सब्लीमेशन) का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। जिसका समर्थन पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक 'एडलर' और 'जुंग' ने भी किया है। जो भी कामनाएँ, वासनाएँ, या विषय-रस बाह्यवर्ती हैं, उन्हें अन्तवर्ती बना लिया जाए तो जो सुख या आकर्षण प्रत्यक्ष दृश्यमान पदार्थों या विषयों में प्रतीत होता था, वह अन्तरात्मा में दिखाई देने लगेगा। इन्द्रियों के जिन रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दों (ध्वनियों) के आकर्षण में जहाँ आम्रवप्रधान दृष्टि वाला व्यक्ति अपनी आत्मशक्तियों को गंवाकर बेचैन ही उठता है, वहाँ संवरप्रधान दृष्टि वाला साधक अन्तरात्मा में डुबकी लगाकर आत्मतृप्ति, आत्मिक सुख एवं आत्मसन्तोष का असीम भण्डार पा जाता है, और शान्त, निश्चल हो सकता है। यदि आत्मा में निहित उस अनन्त सुख (आनन्द) की प्राप्ति के लिए (भाव) इन्द्रियों और मन को क्षणिक वासनाओं एवं विषय रसों (विकारों) से मोड़कर अथवा उन्हें अपने वशवर्ती बनाकर उनकी क्षणिक सुखानुभूति (सुखाभासानुभूति) से वंचित कर दिया जाए तो यह सौदा घाटे का नहीं लाभ का ही है।' योगदर्शनसम्मत प्रत्याहार से इन्द्रियों का विषयों से सम्बन्ध भी असम्बन्ध-सम हो जाता है सामान्य रूप से इन्द्रियों का सम्बन्ध बाह्य विषयों के साथ होने पर भी वह तब तक वृत्तिरूप ज्ञान का जनक नहीं होता, जब तक चित्त (मन) का सम्बन्ध इन्द्रियों से न हो। १. अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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