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________________ इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ८०१ जब चित्त को इन्द्रिय-विषयों से मोड़कर आत्म-स्वरूप तथा आत्मगुणों के चिन्तन में एकाग्र या लीन कर दिया जाता है, तब वह बाह्य विषयों की ओर से विमुख रहने लगता है। इस अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त ( मन ) का सम्बन्ध बाह्य (इन्द्रिय) विषयों के साथ नहीं होता, ऐसी स्थिति में इन्द्रियों का सम्बन्ध अपने बाह्य (इन्द्रिय) विषयों के साथ होने पर भी न होने (असम्बन्ध) के समान हो जाता है। पातंजल योगसूत्र में इसी को ‘प्रत्याहार' कहा गया है। अर्थात्- जब इन्द्रियों का स्वविषय-सम्बन्ध असम्बन्ध के समान होकर चित्त के अनुरूप (विषय के साथ सम्बन्ध न रखने जैसी) स्थिति को प्राप्त हो जाता है, इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय को अपने विषय से आहरण (दूर) कर देना - विषय से (सम्बन्ध छिन्न हो जाना) 'प्रत्याहार' है। इन्द्रियजय के लिए इस उपाय के अतिरिक्त अन्य श्रेष्ठ उपाय नहीं योगदर्शन के इस सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि 'ऐसी स्थिति में इन्द्रियों के जय अथवा उनको वश में करने के लिए अन्य किसी उपाय की अपेक्षा नहीं रहती । इन्द्रियों का नेता चित्त या मन है। जब वही उनकी ओर से विमुख हो जाता है तो इन्द्रियाँ अपने आप शिथिल (शान्त) हो जाती हैं। जैसे रानी मधुमक्खी जिधर जाती है, उसी के पीछे अन्य मक्खियाँ जाती व बैठती हैं, उसी प्रकार इन्द्रियाँ भी चित्त की अनुगामिनी बनी रहती हैं। चित्त के आत्म भावना से प्रेरित होने पर इन्द्रियाँ आत्म भावना से प्रेरित होती हैं। ध्यान रहे, चित्त (मन) इन्द्रियाँ आदि सब आत्मा के लिए साधन मात्र (करण) हैं। ' पूर्वोक्त रीति से प्रत्याहार करने पर पूर्णरूप से इन्द्रियवश्यता इससे अगले सूत्र में कहा गया है कि पूर्वोक्त रूप से प्रत्याहार करने से इन्द्रियाँ सर्वोत्कृष्ट रूप (पूर्णरूप) से वशवर्ती हो जाती हैं। फिर उनमें वह क्षमता नहीं रहती कि वे आत्मा को विषयों की ओर आकृष्ट कर सकें। कुछ आचार्य कहते हैं कि उपयुक्त मात्रा में शब्दादि विषयों का उपभोग करना इन्द्रिय-जय है। कुछ कहते हैं-शब्दादि विषयों में आसक्त न होना इन्द्रियजय है। कई • आचार्य कहते हैं-विषयों का किसी भी प्रकार से दास न बनकर, अपितु स्वामी बनकर विषयों का उपभोग करना इन्द्रियजय है। कई जैनाचार्यों का कहना है - रागद्वेष को छोड़कर सुख-दुःख का अनुभव न करते हुए विषयों का उपभोग करना इन्द्रियजय है। किन्तु योगदर्शन के अनुसार इन्द्रियजय की पूर्णता (पूर्णरूप से इन्द्रियजय या इन्द्रियों का वशीकरण) तब तक नहीं हो पाती, जब तक विषयों के प्रति व्यक्ति की भोग-भावना बनी रहती है। १. (क) “स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । " -योगदर्शन साधन पाद २/सू. ५४ (ख) पातंजल योग दर्शनम् (विद्योदय भाष्यसहित ) में इसी सूत्र की व्याख्या, पृ. १५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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