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________________ इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७९९ परमात्मा का ज्ञान (विवेक) चक्षुओं से दर्शन कर लिया, आत्मा पर - स्व-स्वभाव पर ध्यान केन्द्रित कर लिया अथवा आत्मा के निजी गुणों-अनन्त ज्ञान-दर्शन, आनन्द और शक्ति में तल्लीन- - तन्मय हो गया, स्व-भाव में ही रमणशील हो गया- वह व्यक्ति परभावों एवं विभावों से-विषयों एवं विकारों से- शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है। उसका विषयों के साथ संसक्तरस सर्वथा छूट जाता है। आचारांग सूत्र में शुद्ध आत्मा अथवा परमात्मा के निरंजन-निराकार स्वरूप का वर्णन किया गया है। शुद्ध आत्मा का स्वरूप शब्दातीत, रूपातीत, रसातीत, गन्धातीत एवं स्पर्शातीत है। परमात्मा या शुद्ध आत्मा समस्त कर्मों से मुक्त (आनवों और बन्धों से सर्वथा रहित) हो जाने पर जन्म-मरण रूप संसार चक्र में परिभ्रमण का सदा के लिए अन्त कर देता है। उपनिषदों में इसी से मिलता-जुलता परब्रह्म या परमात्मा का स्वरूप मिलता है। अर्थात्-परमात्मस्वरूप का ध्यान करने से इन्द्रियाँ, होते हुए भी निरिन्द्रिय हो जाता है, मन होते हुए भी अमन, प्राण होते हुए भी अप्राण हो जाता है। उपनिषद् में स्पष्ट कहा गया है - इन्द्रियाँ पर हैं, इन्द्रियों से परे मन है, मन से पर बुद्धि है और जो बुद्धि से पर है, वही 'पर' है-परम-आत्मा है। शुद्ध आत्मा सर्वथा ज्ञान-दर्शनमय-चैतन्यमय - ज्ञानघन है। इसका स्वरूप हृदयंगम हो जाने पर पूर्ण इन्द्रियसंवर हो जाता है। फिर सारे विकार, सभी वासनाएँ, समस्त कर्मसंस्कार समाप्त हो जाते हैं।' शुद्ध आत्मदर्शन का क्षण ही मनःशान्ति, इन्द्रिय - निश्चलता, निराबाध आत्मशान्तिका क्षण हैं। इन्द्रियसंवर या इन्द्रिय-विजय की यह पराकाष्ठा है। जब तक इस मंजिल पर साधक नहीं पहुँच जाता, तब तक यह नहीं कहा सकता कि पूर्णतया इन्द्रिय विजय हो गई है। इन्द्रिय-विजय से अथवा इन्द्रियों को वश में करने से ही व्यक्ति का इन्द्रियसंवर पूर्णता तक पहुँचता है। ऐसा साधक गुप्तेन्द्रिय, जितेन्द्रिय अथवा 'दान्त' कहलाता है। १: (क ) " से ण दीहे, ण हस्से ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णा । परिण्णे, सण्णे । उवमा ण विज्जति । अरूवी सत्ता । अपदस्स पदं णत्थि । से ण सद्दे, ण रूवे, ण रसे, ण गंधे, ण फासे, इच्चेतबादति तिबेमि । " - आचारांग श्रु. १, अ. ५, उ. ६, सू. १७६ पृ. १८८-१८९ ( आ. प्र. समिति ब्यावर ) (ख) तुलना करें - अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं, तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनाद्यनन्ते महतः परं ध्रुवं, निचाम्य तन्मत्युमुद्धतः प्रमुच्यते ॥ - कठोपनिषद् १/३/१५ नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं मद्भूतयोनिं नश्यन्ति धीराः । यत्तद दृश्यमग्राह्यमवर्णमचक्षुश्रोत्रं तदपाणिपादम् ॥ -मुण्डकोपनिषद् ६/६ (ग) न्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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