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७९८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) विषयों से दूर रहने पर भी अन्तर् में रस (वासना) रह जाता है
जिस प्रकार प्याज के रस के बर्तन को कितना ही मांज-धो लेने पर भी तथा उसमें फिर बाहर से प्याज का रस न डालने पर भी यत्किंचित् प्याज की गन्ध रह ही जाती है, उसी प्रकार इन्द्रियों को विषयों से सम्पर्क न कराने पर भी, अर्थात्-आँख, नाक, कान, जीभ आदि के द्वारा बाहर से विषयों का ग्रहण न किये जाने पर भी, उनमें पहले के लगे हुए अपने-अपने विषय के संस्कार पड़े रहते हैं। इन्द्रियों के निराहार होने से, बाहर से . नहीं लेने से भी विषयों के साथ पहले के लगे हुए राग, द्वेष, कषाय आदि विकारों के संस्कार सहसा लुप्त नहीं हो जाते, वे विकार भावेन्द्रियों के साथ चिपके हुए हैं, वे सहसा । छूट नहीं जाते।
___ आशय यह है कि आँखें मूंद लेने पर, कान रूई आदि से बंद कर देने पर, नाक को कपड़े आदि से बंद कर देने पर, जीभ को आहारादि पदार्थ का सम्पर्क न कराने पर तथा : त्वचा से स्पर्श का संवेदन न कराने पर वे सभी विषयों से सम्पर्क नहीं कर पातीं। इस प्रकार इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयरूप आहार को ग्रहण करने से तो विरत हो गईं। किन्तु यों विषयों से विनिवृत्त हो जाने पर भी विषयों के रस-वासना की समाप्ति नहीं हो जाती।
निष्कर्ष यह है कि इन्द्रियों के द्वारा बाहर से विषयों का अग्रहण होने पर भी जब तक उनकी वासना-यानी राग-द्वेषयुक्त विकार भाव-रूपी रस समाप्त नहीं होगा, तब तक इन्द्रिय-संवर अधूरा है। केवल संकल्प कर लेने मात्र से, प्रतिज्ञा ले लेने मात्र से कि मैं विषयों के प्रति राग-द्वेष नहीं करूँगा, सच्चे माने में इन्द्रिय-संवर नहीं हो जाएगा। इन्द्रियों के साथ अवशिष्ट विषयरस छूटेगा 'पर' के दर्शन से
प्रश्न यह है कि इन्द्रियों के साथ अवशिष्ट इस रस (वासना या राग-द्वेषरूप विकार) को कैसे निर्मूल किया जाए? इसके लिए गीता में तथा आचारांग सूत्र में सुन्दर मार्गदर्शन दिया गया है। भगवद्गीता में कहा गया है-शरीरधारी के द्वारा इन्द्रियों से विषयों को बाहर से ग्रहण न करने से विषय तो समाप्त हो जाते हैं, किन्तु विषयाहार से रहित निराहार साधक के अन्तर् में उन विषयों के रस (राग- द्वेषादि विकार) समाप्त नहीं होते। विकास या रस छूटेंगे 'पर' (परम-आत्मा-शुद्ध आत्मा) के दर्शन से।' 'पर' के दर्शन का अभिप्राय : जैन और वैदिक दृष्टि से ___ 'पर' के दर्शन से यहाँ अभिप्राय है-'परमात्म-दर्शन अथवा शुद्ध आत्मा का दर्शन।' जिसने शुद्ध कर्मरहित, कायारहित तथा मोह-माया (राग-द्वेष) से रहित आत्मा
१. (क) वही, पृ. ८४
(ख) विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। - रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥
-गीता २/५९
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