SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७९७ पर विजय पाना-मन को वश में करना बहुत ही कठिन है। फिर भी वीतरागी अनुभवी महापुरुषों ने मनस्वी साधक से कहा - "(इन्द्रिय-संवर के साधक को ) प्राप्त होने पर भी कामभोगों की अभ्यर्थना (मन से अभिलाषा - आशंसा) नहीं करनी चाहिए।" इसी शास्त्र में कहा गया है-इन्द्रिय-संवर-साधक कामी (विषय सुखाभिलाषी) होकर कामभोगों की ( मन ही मन ) कामना न करे। प्राप्त भोगों को भी अप्राप्त जैसा करदे। अर्थात्-उपलब्ध विषयभोगों के प्रति मन से उदासीन रहे। आशय यह है कि मनस्वी इन्द्रिय संवर साधक अभीष्ट विषयों की प्राप्ति की आकांक्षा न करे, यदि प्राप्त हो गए हों तो उनके लिए मन ही मन स्वागत का थाल न सजाए। इसीलिए ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में कहा गया है - "जो व्यक्ति विषय भोगों से निरपेक्ष रहते हैं, वे (इन्द्रिय-संवर द्वारा) संसार रूपी अरण्य को पार कर जाते हैं।" प्राप्त विषयों के प्रति रागद्वेष का त्याग करना कठिन यद्यपि यह कहना आसान है कि पहले तो चलाकर अनावश्यक विषयों को ग्रहण ही न करो, और यदि विषय इन्द्रियों के सम्मुख आ गए हैं तो उनके प्रति राग-द्वेष न करो। परन्तु जब तक वीतरागता की भूमिका तक साधक न पहुँच जाए, तब तक रागद्वेष का सर्वथा त्याग करना अत्यन्त कठिन है। जैसे ही कोई रूपवान् व्यक्ति सामने आया, वैसे ही राग का भाव मन में प्रादुर्भूत हो जाएगा, जैसे ही कोई कुरूप का विकृत चेहरा सामने आया, मन में फौरन घृणा का भाव उत्पन्न हुए बिना न रहेगा। केवल आँख, कान, जीभ आदि बंद कर देने मात्र से विषयों के प्रति राग-द्वेष मन में उत्पन्न होने से रुक नहीं जाएगा। मन ही मन विषय भोग-प्राप्ति की आकांक्षा भी राग रूप है कई बार इन्द्रियाँ अभीष्ट विषयों को ग्रहण नहीं करतीं, फिर भी मन ही मन अमुक विषय को या संजीव अथवा निर्जीव अभीष्ट पदार्थ को पाने की ललक उठती है, मन ही मन व्यक्ति उस अनुपस्थित या पूर्व दृष्ट विषय या वस्तु पर आसक्त हो जाता है, मन ही मन में उसको प्राप्त करने के लिए वह लालायित हो जाता है। उसको पाने के लिए प्लान बनाता है। अथवा बाहर से विषयों को न ग्रहण करने पर भी स्वप्न में या अकस्मात् पूर्वभुक्त विषय का स्मरण हो जाने पर उस वस्तु के प्रति आसक्ति, लोलुपता, कामना आदि के रूप में राग होता है। अतः राग का दायरा बहुत विस्तृत है। उसकी जड़ें बहुत गहरी और दूर-दूर तक फैली हुई हैं। १. (क) लद्धे कामे न पत्येज्जा । (ख) भोगेहिं निरवयक्ख, तरंति संसार- कांतारं ॥ २. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. ८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only . - सूत्रकृतांग १/९/३२ -ज्ञाता. १/९ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy