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________________ ७९६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६). आजीवन इन्द्रिय द्वार बन्द करना शक्य नहीं इसी दृष्टि से इन्द्रिय-संवर के लिए पहला विधान किया गया-इन्द्रियों के द्वार बन्द कर दो, यानी इन्द्रियों के जो ५ विषय हैं-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श, इन्हें ग्रहण ही मत करो। परन्तु आचारांग सूत्र के पूर्व कथनानुसार शरीरधारी के लिए इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सर्वथा और सर्वदा-सदाकाल के लिए ग्रहण न करना शक्य नहीं है। शरीरधारी का समग्र जीवन-शैशवावस्था से लेकर मृत्यु-पर्यन्त-इन्द्रियों द्वारा विषयों के अग्रहण पर चल नहीं सकता। विषयों के अग्रहण की बात कुछ समय तक के लिए ठीक हो सकती है, किन्तु जिंदगीभर के लिए उच्चतम गुणस्थान की भूमिका तक न पहुँच जाए तब तक हर समय के लिए यह शक्य नहीं है। अतः आचारांग सूत्र में स्पष्ट प्रतिवाद किया गया कि विषयों का सर्वथा-सर्वदा अग्रहण संभव नहीं है, किन्तु जो विषय अनायास ही प्राप्त हों, उनके प्रति राग और द्वेष का त्याग कर दो। चलाकर विषयों को ग्रहण मत करो, न ही उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करो। इसका फलितार्थ हुआ कि विषयों के साथ रागादि युक्त मन को मत जोड़ो। रागद्वेष का मेल विषयों के साथ जोड़ता है-मन। इसलिए दूसरा विधान हुआ-“मन का दरवाजा बन्द करो, उस पर पहरा रखो।" इन्द्रिय-संवर के लिए इन्द्रिय कषायादि को कृश करना है, शरीर को नहीं - कई धर्म-प्ररूपकों का कहना है कि मन को दुर्बल करने या मारने के लिए शरीर को खूब तपाओ, इसे कठोर तप करके एकदम कृश कर दो, तभी इन्द्रियाँ भी क्षीण हो जाएँगी; किन्तु इस तथ्य को युक्तिहीन बताकर प्रतिवाद करते हुए निशीथभाष्य में कहा गया-"हम साधक के केवल अनशन आदि से कृश (दुर्बल) हुए शरीर के प्रशंसक नहीं हैं, वस्तुतः इन्द्रिय (वासना), कषाय और अहंकार को ही कृश (क्षीण) करना चाहिए।" मरणसमाधि, अध्यात्मसार आदि ग्रन्थों में भी इस तथ्य का समर्थन किया गया है-“वही अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि (क्षीणता) न हो, तथा योग (मन वचन काय) से की जाने वाली आवश्यक क्रियाएँ-प्रवृत्तियाँ भी न छूटें। इन्द्रिय-संवर के लिए मन से भी कामभोगों की आकांक्षा न करे आशय यह है इन्द्रिय-संवर का सारा दारोमदार मन पर निर्भर है क्योंकि राग-द्वेष, कषाय या विषयासक्ति मन ही करता है, वही उसका त्याग कर सकता है। मन १. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण पृ. ८४ २. (क) इंदियाणि कसाये य गारवे य किसे कुरु। णो वयं ते पसंसओ किसं साहु सरीरयं॥ -निशीथभाष्य ३७५८ - (ख) सो नाम अणसणतवो तेण मणोमंगुलं न चिंतेइ।जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा न हयति॥ -मरणसमाधि १३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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