________________
इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७८९ उसकी बुद्धि विषयों के प्रति भ्रष्ट हो जाती है और अन्त में उसका विनाश निश्चित होता है। उत्तराध्ययन की तरह भगवद्गीता भी इन्द्रिय विषयों के सुखाकांक्षा पूर्वक चिन्तन से सर्वनाश की परम्परा का चित्र प्रस्तुत करती है-"इन्द्रिय-विषयों का ध्यान (एकाग्रतापूर्वक चिन्तन) करने से उनमें आसक्ति पैदा होती है, आसक्ति से काम (प्राप्ति की ललक), काम से क्रोध, क्रोध से सम्मोह (विवेकमूढ़ता), सम्मोह से स्मृतिभ्रंश, स्मृतिभ्रंश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से सर्वनाश हो जाता है।" ___इस प्रकार इन्द्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष-मोहरूप विष चक्र इस जन्म में तथा जन्मान्तर में भी जन्म, जरा, मृत्यु व्याधिरूप दुःख समूह प्राप्त कराता है, क्योंकि इन्द्रिय विषयों के प्रति असावधान साधक रागद्वेषवश शीघ्र ही पापकर्मों का आनव और बन्ध कर लेता है, उनके फलस्वरूप दुःख, पीड़ा और संताप पाता है। इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है-इन्द्रियों के विषयभोग क्षणभर के लिए सुख देते हैं, किन्तु बदले में चिरकाल तक दुःखदायी होते हैं।' इन्द्रियाँ असावधान मानव को कैसे विषयों के घेरे में फंसाती है?
अखण्ड ज्योति में एक रूपक द्वारा बताया गया है कि इन्द्रियाँ किस प्रकार मूढ़ मनुष्य को विषयों के मायावी घेरे में फंसा लेती हैं-"अमेरिका के दक्षिणी भागों में पानी में पाया जाने वाला कछुए की-सी आकृति का एक जलचर जीव होता है-'एलीगेटर स्नैपर'। वह अपनी जीभ को बाहर निकालकर आगे-पीछे, दांये-बांये इस प्रकार • लपलपाता है कि देखने वाले को यह जीम स्वतंत्र जीव की-सी लगती है। उसे देखकर कई मछलियाँ उसे खाने के लिए दौड़ पड़ती हैं। ज्यों ही वे उसके पास पहुँचती हैं, एलीगेटर स्नैपर' उन्हें दबोच कर खा जाता है।"२ - ठीक यही स्थिति शरीरस्थ इन्द्रियों में बसे विषयों की लपलपाहट से भ्रान्त एवं मूढ़ जीव की है। वह उसकी तृप्ति के लिए भाग-भाग कर आता है और बार-बार काल के द्वारा अथवा मायावी विषय-सुखों के द्वारा दबोच लिया जाता है। कुछ ही ऐसे बुद्धिमान्, जागरूक और विवेकी लोग होते हैं, जो इन्द्रियों के विषय-सुखों के प्रति आसक्ति को आत्मा का नहीं, शरीर का विषय मानते हैं और उनसे दूर रहकर अपनी सुरक्षा कर पाते
नदियों में पाया जाने वाला घड़ियाल भी जितना क्रूर होता है, उतना चतुर भी। शिकार की टोह में वह नदी के किनारे जाकर इस तरह निश्चेष्ट पड़ा रहता है, मानो 5. (क). धम्मपद गा. ७,८
(ख) भगवद्गीता अ. २, श्लोक ६२,६३ (ग) खणमित्त सुक्खा बहुकालदुक्खा। . अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९७८, पृ. १२ से
-उत्तराध्ययन १४/१३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org