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७९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आम्रव और संवर (६) कोई चट्टान या निर्जीव वस्तु हो। ज्यों ही कोई मूर्ख मछली उसके पास पहुँचती है, त्यों ही वह उसे पकड़कर उदरस्थ कर लेता है।
___ यही स्थिति मनुष्य की इन्द्रियों की है। सामान्यतया वे मूढ़ मानव को निर्जीव मालूम होती हैं। पर वे इतनी धूर्त और चालाक होती हैं कि मूढ़ मानव विषयों के सेवन के समय सावधान और जागरूक नहीं रह पाता। ज्यों ही आहार, विहार, खान-पान, तथा काम-भोगों आदि की मर्यादाजन्य भूलें हुई कि ये निष्प्राण प्रतीत होने वाली इन्द्रियाँ उत्तेजित होकर उसे अपने चंगुल में फंसा लेती हैं। फिर उसके चंगुल से निकल पाना कठिन होता है। इन्द्रिय-संवर के साधको! सावधान! - इसीलिए भगवद्गीता में इन्द्रिय-संवर के साधकों को सावधान करते हुए कहा गया है-"जिस प्रकार पानी में नौका को वायु खींच ले जाती (हर लेती) है, उसी प्रकार विषयों में विचरण करती हुई इन्द्रियों में से जिस इन्द्रिय के साथ मन संलग्न हो जाता है, वह एक ही इन्द्रिय इस (असावधान साधक) की बुद्धि का हरण कर लेती है।" साधना में , प्रयत्नशील (यतनावान्) बुद्धिमान् व्यक्ति के मन को भी ये प्रमथन-स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात् उसे (विषयासक्ति की ओर) हर (खींच) लेती हैं और संवर-पथ से च्युत कर देती
"जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ सब प्रकार से इन्द्रिय-विषयों सहित वश में की हुई होती हैं, उसी की प्रज्ञा (संवर में) स्थिर होती है।"
व्यवहारसूत्र भाष्य में इस सम्बन्ध में निरूपण किया गया है कि-"इन्द्रियों के विषय एक सरीखे होने पर भी एक उसमें आसक्त हो जाता है, और दूसरा विरक्त रहता है। जिनेश्वरदेवों ने बताया है कि इस सम्बन्ध में व्यक्ति का अन्तर्मन ही प्रमाणभूत है, न कि इन्द्रियों के बाह्यविषया रागद्वेष रहित होकर विषयोपभोग करने से इन्द्रियाँ वश में,चित्त भी स्वच्छ
यही कारण है कि आचारांगसूत्र और उत्तराध्ययनसूत्र में निर्दिष्ट मन्तव्य के समान भगवद्गीता में भी इन्द्रिय-निग्रह या इन्द्रिय-संवर की साधना में सीधे इन्द्रियों के दमन, विषयों के निरोध की अपेक्षा इन्द्रिय-संवर के साधक पर विशेष उत्तरदायित्व डाला है कि वह अपने मन को राग-द्वेष से सम्पृक्त न होने दे। सावधान अप्रमत्त (विधेय) आत्मा इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन (उपभोग) करता हुआ भी अगर उन्हें (इन्द्रियों
१. वही, (अखण्ड ज्योति) अक्टूबर १९७८ पृ. १२ २. भगवद्गीता अ. २ श्लो. ६७, ६०, ६८ ३. व्यवहार सूत्र भाष्य २/५४
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