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________________ ७८८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) . कभी-कभी पत्नी का स्वास्थ्य खराब करने और बच्चों का अनावश्यक भार लादने की बात भी सूझती है। फलतःमन धिक्कारता है। ऐसी भी आत्मग्लानि उत्पन्न होती है कि पत्नी का स्वास्थ्य बिगाड़कर तथा बढ़ी हुई गृहस्थी के उत्तरदायित्व वहन करने में जो आर्थिक और मानसिक कठिनाइयाँ पैदा करके तथा पापानव अर्जित करके कौन-सा सुख पाया? ये सब बातें विषय सुख के कुछ क्षणों की तुलना में बहुत ही महंगी और भारी पड़ती हैं। ___ नेत्रेन्द्रिय सुख की आकांक्षा भी उन आसवप्रिय लोगों को ठाठबाट की, सजधजाई की खर्चीली अमीरी की तथा कार, कोठी, फर्नीचर तथा अन्य अनावश्यक वस्तुएँ इकड़ी करने की विडम्बनाएँ रचने को बाध्य करती हैं। ताकि लोग हमारी इज्जत करें, वे हमें धनवान, सुसम्पन्न, पुण्यवान और धर्मात्मा समझकर प्रभावित हों। हमसे दबे रहें। परन्तु यह नेत्रेन्द्रिय विषय सुख की तृप्ति कितनी महंगी, कष्टदायक, दूसरों के दिलों में ईर्पोत्पादक एवं खर्चीली सिद्ध होती है ? इसी प्रकार की अन्य इन्द्रिय विषयजन्य सुखाकांक्षा और आसक्ति की दुःखगाथा है। चिन्तन, निर्णय और दृष्टिकोण में विकृति भरी रहने के कारण इन्द्रियजन्य सुखाभिलाषा की पूर्ति के लिए किये गए समस्त कार्य प्रायः दुःखदायक ही सिद्ध होते हैं। सरल, स्वाभाविक, इन्द्रिय संयम प्रधान जीवन का आनन्द चौपट ही जाता है।' इन्द्रिय विषयों में असावधानी से पतन और दुःख निष्कर्ष यह है कि इन्द्रियों का स्वभाव अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होना है। वे अपने संस्कारवश अनुकूल विषयों में बार-बार प्रवृत्त होती हैं, प्रतिकूल विषयों में कम। उस समय साधक का मन सावधान न रहे तो वह अनुकूल प्रतिकूल के प्रति राग और द्वेष करता है। उसी के कारण कर्मानव कर्मबन्ध होते हैं। जिनके फलस्वरूप जीव का पतन होता है, वह अनेक प्रकार से दुःख पाता है, पापासव एवं बन्ध के फलस्वरूप वह जन्म-मरणादि संसार चक्र को बढ़ाता है। इसी तथ्य को 'धम्मपद' में व्यक्त किया गया है-"जो मनुष्य इन्द्रिय विषय में असंयत रहता है, उसे मार (काम) उसी प्रकार (पतन की खाई में) गिरा देता है, जिस प्रकार कमजोर वृक्ष को हवा गिरा देती है। इसके विपरीत जो मनुष्य इन्द्रियों के प्रति सुसंयत रहता है, उसे मार (काम) साधना से उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकता, जिस प्रकार सुदृढ़ पर्वत को वायु विचलित नहीं कर सकता।" विषयों के चिन्तन से सर्वनाश तक का चक्र गीता द्वारा प्रस्तुत अगर साधक इन्द्रियों के द्वारा विषयों में प्रवृत्ति करते समय सावधान न रहे तो १. वही, अक्टूबर १९७३ से, पृ. ४-५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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