SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७८५ मृग मारा जाता है, उसी प्रकार शब्दों में मूर्छित जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है। मनोज्ञ शब्द की लोलुपता के वश भारी कर्मी जीव अज्ञानवश त्रस और स्थावर जीवों की विविधरूप से हिंसा करता है, उन्हें परिताप उत्पन्न करता है, पीड़ित करता है। शब्द में आसक्त जीव मनोज्ञ शब्द या शब्द वाले पदार्थों के ग्रहण, उत्पादक, रक्षण एवं वियोग की चिन्ता में संलग्न रहता है। वह उपभोग काल में भी अतृप्त रहता है, फिर उसे सुख कहाँ है ? शब्दासक्त जीव लोलुपतावश अतृप्ति के कारण चोरी करता है, झूठ कपट की वृद्धि करता है। इतना करने के बावजूद भी वह अतृप्त रहता है, नाना पापकर्म बाँधकर जन्ममरणादि दुःखपरम्परा से छुटकारा नहीं पाता।" "गन्ध को नाक ग्रहण करती है। नासिका (घ्राणेन्द्रिय) का ग्राह्य विषय गन्ध है। सुगन्ध राग और दुर्गन्ध द्वेष (घृणा) का कारण है। जिस प्रकार सुगन्ध में आसक्त सर्प ज्यों ही अपनी बांबी से बाहर निकलता है, त्यों ही मारा जाता है, उसी प्रकार गन्ध में अतीव आसक्त जीव अकाल में ही काल का ग्रास बन जाता है। मनोज्ञ गन्ध के वशीभूत होकर अज्ञानी जीव नाना प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उन्हें दखित और परितप्त करता है। फिर सुगन्ध में आसक्त जीव सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति संरक्षण, व्यय और वियोग से जनित चिन्ता में ग्रस्त रहता है। वह सुगन्ध के संभोगकाल में भी अतृप्त रहता है, अतः उसे चैन कहाँ ? वस्तुतः गन्ध में आसक्त जीव को किसी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं होता। सुगन्ध के उपभोग के समय भी वह दुःख और क्लेश ही पाता है।" "जिह्वेन्द्रिय रस को ग्रहण करती है। उसका ग्राह्य विषय रस है। मनोज्ञ रस (स्वाद) राग का और अमनोज्ञ रस द्वेष (घृणा) का कारण होता है। जिस प्रकार मांस खाने के लोभ में मछली कांटे में फंसकर मारी जाती है, उसी प्रकार रसों में तीव्ररूप से आसक्त जीव अकाल में ही काल कवलित हो जाता है। रसासक्त जीव कुछ भी सुख नहीं पाता, बल्कि रसास्वादन के समय वह दुःख और क्लेश ही पाता है। इसी प्रकार अमनोज्ञ रसों पर द्वेष (घृणा) करने वाला जीव भी दुःखों की परम्परा बढ़ाता है और कलुषित मन से कर्मों के आसव और बन्ध का उपार्जन करके दुःखदायक फल भोगता है। स्पर्श को शरीर (त्वचा) ग्रहण करता है और स्पर्शेन्द्रिय का ग्राह्य विषय स्पर्श है। सुखदायक स्पर्श राग का और दुःखदायक स्पर्श द्वेष का कारण है। जो जीव सुखद स्पर्शों में गाढ़ आसक्त होता है, वह वन्यसरोवर के शीतल जल में पड़े हुए और मगरमच्छ द्वारा ग्रसे हुए मैंसे की तरह अकाल में ही मौत का मेहमान बन जाता है। सुखद स्पर्श की लालसा में पड़ा हुआ भारी कर्मी जीव अनेक त्रस स्थावर जीवों की नाना प्रकार से हिंसा करता है, उनका अपहरण करता है, उन्हें दुःख और परिताप देता है। सुखद और गुदगदे कोमल स्पर्शों में गृद्ध जीव उन (सुखद स्पर्श वाले) पदार्थों की पाने, रखने, व्यय होने तथा वियोग हो जाने की चिन्ता में ही मग्न रहता है। स्पों के उपभोग के समय भी वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy