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________________ ७८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६). इन्द्रिय-संवर इसलिए भी आवश्यक है .. इन्द्रिय-संवर इसलिए आवश्यक है कि अगर साधक इन्द्रिय द्वारा विषयों में बार-बार प्रवृत्त होते समय सावधान न रहे तो वे उसे बलात् पतन के मार्ग पर ले जाकर साधना से भ्रष्ट कर देती हैं, इसलिए इन्द्रियों पर निरोध (संयम) करना आवश्यक बताया है। ___साधक को इन्द्रियों का उपयोग करते समय सतत इन पर चौकसी रखनी चाहिए। अन्यथा, इन्द्रियाँ अपने-अपने मनोनीत विषय की पूर्ति और लालसा के प्रयास से साधक को घोर अधःपतन में ले जाती हैं। पापानवों में प्रवृत्त कर देती है, क्योंकि इन्द्रिय-विषयों के प्रति रागद्वेष कर्म-आस्रव या बन्ध के कारण (बीज) हैं, कर्मपरम्परा के कारण मोह, और तृष्णा उत्पन्न होती है, जिससे बद्ध कर्म जन्म-मरण चक्र को गतिमान करते रहते हैं, और जन्म-मरण ही अनेक दुःखों का कारण है। इन्द्रिय-संवर न करने वाले अथवा इन्द्रियों द्वारा विषयों के प्रति गतिमान् होते समय सावधान न रहने वाला साधक किस प्रकार रागद्वेष के वशीभूत होकर हिंसादि पापानवों में प्रवृत्त होकर अपना अधःपतन करते हैं और दुःख परम्परा बढ़ाते है, इसका सजीव चित्रण उत्तराध्ययन में प्रस्तुत किया गया है___“रूप को ग्रहण करने वाली चक्षुरिन्द्रिय है और उसका ग्राह्य विषय रूप है। प्रिय रूप राग का और अप्रिय रूप द्वेष का कारण है। रूप में जो तीव्र गृद्धि (आसक्ति) करता है, वह उसी प्रकार अकाल में ही विनाश के प्राप्त होता है, जिस प्रकार प्रकाश के रूप में अत्यासक्त होकर पतंगा अकाल में ही मरण-शरण हो जाता है। इसी प्रकार जो कुरूप वस्तुओं को देखकर तीव्र द्वेष या घृणा करता है, वह भी तत्काल दुःख पाता है, वह अज्ञानी रूप-लोलुप जीव दुःखों से परिपूर्ण पीड़ा पाता है। रूप की आशा (लालसा) में पड़ा हुआ अज्ञानी जीव त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उन्हें संताप देता है और पीड़ित करता है। रूप में आसक्त जीव उस परिग्रह के उत्पादक एवं रक्षण की, संयोग एवं वियोग की चिन्ता में अहर्निश संतप्त रहता है। उसे सुख कहाँ है? वह तो उन विषयों का या पदार्थों के उपभोगकाल में भी अतृप्त रहता है। इसलिए सपासक्त मनुष्य को जरा भी सुख नहीं होता। लपवान् पदार्थों में अतृप्त जीव उन पदार्थों में आसक्त परिसक्त होकर लोभवश दूसरों के पदार्थों के चुराता है, असत्याचरण करता है। उसे जरा सा भी सुख नहीं होता। वह दुःख ही पाता है। इतना करने के बावजूद भी वह उन रूपवान पदार्थों के उपभोग के समय नितान्त दुःख पाता है। इस प्रकार वह नाना कर्मों से बद्ध होकर जन्ममरणादि दुःख परम्परा बढ़ाता है।" "श्रोत्रेन्द्रिय शब्द का ग्रहण करने वाली इन्द्रिय है। शब्द उसका ग्राह्य विषय है। मनोज्ञ शब्द राग का और अमनोज्ञ द्वेष का कारण होता है। जिस प्रकार राग में आसक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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