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७८६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६)
दुखित होता है, संक्लिष्ट होता है, फिर उसे सुख कहाँ ? सचमुच, स्पर्श में आसक्त कुछ भी सुख नहीं पाते। इतने दुःख और क्लेश से सुखद स्पर्श जनित वस्तु प्राप्त होने के बावजूद भी उसके उपभोग के समय अतृप्ति, कर्मबन्ध एवं जन्ममरणादि के दुःखों की . परम्परा ही बढ़ती है। इन्द्रियों का संवर या निरोध न करने के दुष्परिणाम
पाँचों इन्द्रियों में से एक-एक इन्द्रिय का संवर या निरोध न करने पर जीव की कितनी रिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक हानि होती है, इस तथ्य को अनावृत करते हुए योगशास्त्र में कहा गया है-“स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत होकर हाथी, रसनेन्द्रिय के . . वश में होकर मत्स्य, घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत होकर भौंरा, चक्षुरिन्द्रिय के वशीभूत होकर रूपासक्त पतंगा और कर्णेन्द्रिय के वशीभूत होकर मृग मृत्यु का ग्रास बन जाता है। जब एक-एक इन्द्रिय विषय में आसक्ति मृत्यु का कारण बनती है तो फिर पाँचों इन्द्रियों के विषयोपभोग में आसक्त मनुष्य की क्या गति होगी? इसीलिए संवर का एक लक्षण वहाँ किया गया है-इन्द्रियों और मन का विषयों से निवृत्त होना संवर है। इन्द्रिय-विषयों में सुखाकांक्षायुक्त प्रवृत्ति अन्ततः दुःखकारी है, क्यों और कैसे?
निष्कर्ष यह है कि जीव जितना-जितना इन्द्रियों के वशीभूत होकर विषयों में प्रवृत्त होता है, उतना-उतना उसे सुख के बदले दुःख ही मिलता है। इसी तथ्य को ‘प्रवचन सार' में स्पष्ट करते हुए कहा गया है-“इन्द्रियों से जो (कल्पित) सुख प्राप्त होता है, वह पराश्रित, बाधायुक्त, विच्छिन्न (नाशवान-क्षणिक) एवं आसव व बन्ध का कारण तथा विषम होने से वस्तुतः सुख नहीं, दुःख ही है।"
इन्द्रिय-विषयों में सुख ढूँढने वाले, वस्तु स्वरूप से अनभिज्ञ व्यक्तियों को दृष्टि सम्यक् करने की प्रेरणा देते हुए ‘प्रवचनसार' में कहा गया है-"जिसकी दृष्टि ही स्वयं अन्धकार को नष्ट करने वाली है, उसे दीपक क्या प्रकाश देगा? इसी प्रकार जब आत्मा स्वयं (अनन्त अव्याबाध) सुखरूप है, तब इन्द्रिय विषय उसे क्या सुख देंगे"३
परन्तु इन्द्रिय-संवर की सम्यक् दृष्टि से विहीन अविकसित मनःस्थिति वाले लोग इन्द्रिय-विषयों में सुख ढूँढते हैं। सुख की आकांक्षा में भटकते हुए वे लोग यही सोचते हैं १. (क) उत्तराध्ययन अ. ३२ गा. २३,२४, २७, २८,३२
(ख) वही अ. ३२ गा. ३६,३७,४०,४१,४३ (ग) वही, अ. ३२ गा. ४९, ५०, ५३, ५४, ५८ (घ) वही, अ. ३२ गा. ६३-७१ ।
(5) वही, अ. ३२ गा. ७२,७६, ७०,८०, ८४ २. (क) योगशास्त्र प्र. १ श्लो. १३-१४
(ख) संवरश्चाक्षमनसो विषयेभ्यो निवर्तनम्। -योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति १/१३ ३. प्रवचनसार १/७६, १/६७
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