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________________ इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७८१ की साधना किये बिना ही कृतार्थ हो जाता। अथवा जो प्राणी पाँचों इन्द्रियों वाले नहीं हैं, जिन्हें केवल स्पर्शेन्द्रिय मिली है, या दो, तीन या चार इन्द्रियाँ ही प्राप्त हुई हैं, जो विकलेन्द्रिय प्राणी हैं, उन्हें जो इन्द्रियाँ उपलब्ध नहीं हुईं, क्या वे उन्हें संवृत करने या उन पर विजय पाने में सफल हो गए?' एक इन्द्रिय का कार्य दूसरी इन्द्रिय से हो सकता है यह भी अनुभवसिद्ध तथ्य है कि एक इन्द्रिय बंद या स्व-विषयग्रहण में अक्षम हो जाने पर भी दूसरी इन्द्रिय से वही कार्य हो जाता है। संसार के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। इंग्लैण्ड में मोंटगुमरी नामक एक जन्मान्ध व्यक्ति पोस्टमैन पद पर नियुक्त हुआ और उसने पूरे ३५ वर्ष तक यह नौकरी की। इस बीच एक भी घटना ऐसी नहीं हुई कि उसने किसी का पत्र, किसी दूसरे को दे दिया हो। वह चिट्ठियाँ के कोनों पर छेद उभार कर ऐसी पहचान कर लेता था कि पढ़ न सकने या व्यक्ति को आँखों से देख न सकने पर भी पत्रों को यथास्थान पहुँचा देता था। वह नेत्रेन्द्रिय का कार्य स्पर्शेन्द्रिय से कर सकता था। परन्तु इस पर से उसे चक्षु इन्द्रिय संवर का साधक नहीं कहा जा सकता। ___अगर ऐसा हो जाता तो इन्द्रिय संवर या इन्द्रिय विजय की साधना का कोई अर्थ ही नहीं रहता। परन्तु पौर्वात्य एवं पाश्चात्य सभी दार्शनिकों ने इन्द्रिय निग्रह के लिए या इन्द्रियों को वश में करने के लिए साधना को अनिवार्य माना है। साधना के बिना किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिलती। आवश्यक मलयगिरि वृत्ति में कहा गया है-इन्द्रियों और नोइन्द्रिय (मन) का गोपन करना, उनका आसवों से रक्षण करना-संवर है।३।। क्या इन्द्रियों को नष्ट या विकृत कर देने से इन्द्रिय-संवर या इन्द्रिय-निग्रह सम्भव जो लोग इन्द्रियों को वश में करने या इन्द्रिय-निरोध करने के लिए नेत्र, श्रोत्र आदि इन्द्रियों को नष्ट करने या विकृत करने का प्रतिपादन करते हैं, उनसे पूछा जाए कि उनके उक्त विकार या अपराध का मूल कहाँ था ? वह तो मन में था। मन को तो उन्होंने वश में किया नहीं, और केवल इन्द्रियों पर बरस पड़े, इससे 'दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम' वाली कहावत ही चरितार्थ होती है। ये इन्द्रियों की शक्ति का संवर्धन करके उन्हें आध्यात्मिक विकास में, या संवरनिर्जरारूप धर्म के आचरण में, स्पष्ट कहें तो अहिंसा, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सत्य, अस्तेय, संयम, तप एवं कष्ट सहिष्णुता या परीषह-विजय के रूप में इन्द्रियों को १. महावीर की साधना का रहस्य से यत्किंचिद् भावांश ग्रहण पृ. ७९ २. अखण्ड ज्योति दिसम्बर १९७६ में प्रकाशित घटना से, पृ. ७ ३. (क) संवरः इन्द्रिय-नोइन्द्रिय गोपनम्। ___-आवश्यक मलयगिरिवृत्ति (ख) संवरः इन्द्रिय नोइन्द्रियगुप्तिः। -आवश्यक हा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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