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________________ - ७८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) ... प्रयुक्त करके संवर साधना कर सकते थे, उसके बदले वे इन्द्रियों को ही नेस्तनाबूद करके • उनसे होने वाले महालाभ से वंचित रहे। इन्द्रियों का शुभ कार्यों में उपयोग करके वे पुण्योपार्जन भी कर सकते थे, जो उनके आध्यात्मिक विकास में सहायक बनता, उसके बदले उन्होंने इन्द्रियों को विकृत और नष्ट करके बाहर से जितेन्द्रिय कहलाने का दम्म एवं दिखावा किया, और मन ही मन विषयों का चिन्तन, विषय-प्राप्तिकामना एवं लालसा करके अथवा हिंसा, असत्याचरण, ठगी या पदार्थों के संरक्षण की चिन्ता आदि करके पाप कर्मों का आनव व बन्धन किया। गीता में स्पष्ट कहा गया है-"जो व्यक्ति बाहर से कर्मेन्द्रियों अथवा चेष्टाओं (को) और इन्द्रियों को नियंत्रित (बंद) कर लेता है, परन्तु अन्तर में मन ही मन उन इन्द्रिय-विषयों या पदार्थों की प्राप्ति के लिए चिन्तन-स्मरण रहता है, वह विमूढात्मा मिथ्याचारी (दम्भी) कहलाता है।" - इसीलिए आराधनासार में कहा गया है-मन को मारने-वश में करने का प्रयत्न करो। मनरूपी राजा के मर जाने पर, इन्द्रियाँ रूप सेना तो स्वतः सर (नष्ट या पलायित हो) जाती है।" .. मगर इन्द्रिय-संवर या इन्द्रिय-निरोध का यह अर्थ नहीं है कि इन्द्रियों की शक्ति या क्षमता को सर्वथा नष्ट या अवरुद्ध कर दिया जाए। इन्द्रियों का सर्वथा अवरोध या कर्तृत्व अथवा निरिन्द्रियत्व तो अध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका (चौदहवें गुणस्थान) पर पहुँचने पर स्वतः हो जाता है। इन्द्रिय-विजय या इन्द्रिय-संवर का फलितार्थ . . वस्तुतः इन्द्रियों पर विजय या इन्द्रिय-संवर का फलितार्थ है-इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त होने पर जो राग-द्वेष, मोह, घृणा, आसक्ति या अनुकूल-प्रतिकूल के प्रति वासना उत्पन्न होती है, उसे रोकना, उस पर नियंत्रण करना। चूँकि वासना, आसक्ति या राग-द्वेष आदि अव्यक्तभाव है, वे सहसा, प्रत्येक व्यक्ति की पकड़ में नहीं आते। इन सबके मूल में, अथवा विषयों की ओर प्रवृत्ति करने में पहल करने वाली, विषयों में सर्वप्रथम प्रवृत्त होने वाली इन्द्रियाँ ही हैं। वे भावेन्द्रिय या मन से प्रेरित होकर अपने-अपने विषयों की पूर्ति के प्रयास में प्रवृत्त होती है। इसलिए साधारणरूप से यह माना गया कि इन्द्रियों और मन का निरोध कर दिया जाए। जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं-"इन्द्रियों पर काबू किये बिना रागद्वेष और १. (क) कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।" . (ख) मण-णरवइए मरणे, मरंति सेणाई इंदियमयाई॥ . -गीता ३/६ -आराधनासार ६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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