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________________ । इन्द्रिय-संवर का राजमार्गः ७७९ चाहता है। वह बाह्य अनुकूल पदार्थों को प्राप्त करना चाहता है, बार-बार उनमें प्रवृत्त होता है और प्रतिकूल पदार्थों और विषयों से बचना चाहता है। कठोपनिषद में कहा गया है कि “इन्द्रियों को बहिर्मुखी कर देने के कारण जीव बार-बार बाह्य विषयों की ओर ही देखता है, अन्तरात्मा की ओर नहीं।" ____ जीव की इसी रुचि को वासना, कामना, आसक्ति, काम-भोग-लिप्सा, राग, मोह या तृष्णा कहते हैं। जिससे वासना आदि की पूर्ति हो, उसे सुख तथा जिससे वासना आदि की पूर्ति में विजबाधा उत्पन्न हो, उसे दुःख माना गया। अतः सामान्य प्राणी अनुकूल विषयों को सुख रूप और प्रतिकूल विषयों को दुःखरूप मानने लगा। ___जीव की इस प्रकार की रुचि के कारण इन्द्रियाँ भी उसे सुखद माने जाने वाले विषयों की ओर बार-बार खींचकर ले जाने लगती हैं। फिर वह सुखद विषयों के प्रति राग और आसक्ति तथा दुःखद विषयों के प्रति द्वेष और घृणा करता है। परन्तु यह सब होता है-इन्द्रियों के साथ मन का संयोग होने पर। तभी सुखद अनुभूतियों को पुनः पुनः पाने का और दुःखद अनुभूतियों से बचने का विकल्प उठता है। . इस प्रकार की जीव की कामना, वासना, काम या मोह आदि से राग और द्वेष उत्पन्न होता है। राग और द्वेष इन्द्रियों के निमित्त से पैदा होता है, उन्हीं की ये आकर्षणासक और विकर्षणात्मक शक्तियाँ हैं। स्पष्ट है कि इन्द्रियाँ इस प्रकार से जीव को विषयों से सम्पर्क कराती हैं, तभी जीव के मन में विषयों के प्रति संस्कारवश अनुकूल और प्रतिकूल भाव जाग्रत होते हैं। जिनसे रागद्वेष का जन्म होता है। राग-द्वेष से क्रोधादि कषायों का प्रादुर्भाव होता है, और फिर कमों का आनव और बन्ध होता है। इस दुश्चक्र की आदि निमित्त इन्द्रियाँ बनती हैं। इसलिए इनका निग्रह या निरोध करना आवश्यक माना गया। विषय-सम्पर्क होने पर भी मन में राग-द्वेष न हो तो आनव-बन्ध नहीं होता इस पर से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रियों का विषयों से सम्पर्क होने पर भी मन में यदि राग-द्वेष की, अनुकूल-प्रतिकूल को ग्रहण-त्याग की वासना उत्पन्न न हो तो प्राणी का अधःपतन नहीं होता। जैनदृष्टि से कहें तो राग और द्वेष के कारण कर्म परम्परा का बीजारोपण न होता और न ही आसव और बन्ध का, और कमों के कारण संसार परिभ्रमण (जन्म-मरण के चक्र में पर्यटन) का कारण बनता। कर्मानवों का मूल कारण इन्द्रियाँ नहीं, मन या आत्मा स्वयं है . इस पर से यह भी स्पष्ट है कि कर्मानवों का मूल कारण इन्द्रियाँ नहीं, मन या आत्मा स्वयं ही है। फिर इन्द्रियों का संवर या निरोध क्यों आवश्यक माना गया? १. (क) कठोपनिषद् २/१/१ (ख) जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश ग्रहण, पृ. ४६६ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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