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________________ ७७८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आनव और संवर (६). इन्द्रियों की क्षमता बढ़ाने के बदले इनका निरोध और संवर क्यों? ....... . जब इन्द्रियों की क्षमता बढ़ाकर अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं तब इन्द्रियों का दमन, निग्रह, निरोध या संवर करने की बात को क्यों अधिक महत्व दिया जाता है ? इन्द्रिय-संवर के विधान का क्या रहस्य है? इसका समाधान करते हुए सभी भारतीय धर्म एवं दर्शन एकस्वर से कहते हैं"इन्द्रियों की क्षमता बढ़ाना कोई बुरा नहीं, बुरा है इनका दुरुपयोग, अत्यधिक तथा मर्यादाविरुद्ध स्वच्छन्द उपयोग; क्योंकि ऐसा करने से इन्द्रियों की क्षमता बढ़ने के बजाय अधिकाधिक घटती है। . पाश्चात्य देशों में इन्द्रियों का निरंकुश उपयोग करने वालों की शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियाँ क्षीण हो गईं। आध्यात्मिक शक्ति से तो वे कोसों दूर हो गए। मगर भौतिक एवं पौद्गलिक सुखाभिलाषी मानव इस तथ्य की उपेक्षा करता है। वह इस सत्य को नहीं पहचानता कि इन्द्रियों की क्षमता किन कारणों से घटती है, कैसे बढ़ती है और परिवृद्ध क्षमता का सदुपयोग कैसे करना चाहिए जिससे कमों के आसव के बदले कर्म-संवर करके आत्मिक शक्तियों को अनावृत किया जा सके। . . - भौतिकदृष्टिप्रधान व्यक्ति चाहे पौष्टिक पदार्थ खा लें, चाहे योगाभ्यास कर लें, चाहे अमुक टॉनिक या दवा खा लें, परन्तु जब तक वे इन्द्रियों की स्वच्छन्द एवं अनिष्ट विषयों में प्रवृत्ति तथा उनके उपयोग पर संयम नहीं करेंगे, तब तक इन्द्रिय क्षमता नहीं बढ़ सकती, और न ही इन्द्रिय-संवर की साधना की जा सकती है, और न आत्मिक शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इन्द्रियों का जितना हाथ आत्मा के विकास में है, उतना ही आध्यात्मिक हास या आत्मशक्तियों के विनाश में भी है। . इन्द्रियों का सहज स्वभाव भी निरोध या निग्रह से ही बदला जा सकता है ___इन्द्रियाँ द्रव्य और भावरूप से दो प्रकार की हैं। इससे यह स्पष्ट है कि वे विषयों और पदार्थों का केवल ग्रहण और सेवन ही नहीं करतीं, अपितु अनुकूल विषयों में सुख का और प्रतिकूल विषयों में दुःख का भी अनुभव करती हैं। अतः अनुकूल विषयों के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल विषयों के प्रति विकर्षण-इन्द्रियों का सहज स्वभाव है। यही कारण है कि अपने-अपने अनुकूल एवं सुखद विषयों में प्रवृत्ति और प्रतिकूल तथा दुःखद विषयों से निवृत्ति सहज ही होती है। .. जीव को विषयासक्ति में फंसाकर आस्रव और बन्ध में आदि निमित्त इन्द्रियाँ बनती दूसरी बात यह है कि इन्द्रियाँ जब बहिर्मुखी होकर स्वच्छन्द विचरण करती हैं, तब जीव भी बाह्य विषयों की ओर आकर्षित होकर बार-बार उनका उपभोग करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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