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________________ %3 इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग - इन्द्रियों का व्युत्पत्त्यर्थ, स्वरूप और कार्यक्षमता सांसारिक आत्मा कमों से आवृत होने के कारण स्वयं पदार्थों का ग्रहण (ज्ञान) करने में असमर्थ होती है। आत्मा को पदार्थों की उपलब्धि में अगर कोई माध्यम, द्वार या कारण (लिंग) होती हैं तो इन्द्रियाँ ही। यह स्पष्ट है कि पदार्थों के सावयव रूप को सांसारिक छदमस्थ आत्मा कर्मों से आवृत होने के कारण नहीं पहचान सकती। उसके लिए उसे किसी अन्य की सहायता लेनी पड़ती है। आत्मा पदार्थों के सावयव रूप को पहचानने-जानने के लिए जिनसे सहायता लेती है, वे इन्द्रियाँ ही हैं। ___ इसीलिए इन्द्रिय शब्द का व्युत्पत्तिलम्य अर्थ 'जीवाभिगमसूत्र' की टीका में किया गया है-'इन्द्र अर्थात् आत्मा का जो लिंग यानी चिन्ह है, वह इन्द्रिय है'। अथवा दूसरी दृष्टि से इन्द्रिय का निर्वचन किया गया है-“इन्द्र अर्थात्-आत्मा को जानने का जो लिंग (साधन या चिन्ह) है, वह इन्द्रिय है।'' तीसरा निर्वचन गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में किया गया है-“अहमिन्द्र देवों के समान इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में अहमिन्द्र स्वतंत्र हैं। वे अपने विषय को ग्रहण करने में दूसरी इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रखतीं। 'तत्त्वार्थ वार्तिक' में इसका निर्वचन इस प्रकार किया गया है-आत्मा कर्म के कारण ही चतुर्गतिक रूप संसार में परिभ्रमण करती है। अतः वह समर्थ 'कर्म' ही इन्द्र है, और इस कर्मरूपी इन्द्र के द्वारा जो सृष्ट-रचित है, वह इन्द्रिय है। अर्थात्-इन्द्रियों की रचना नामकर्म विशेष के कारण होती है। इसका एक आशय यह भी है कि अनन्त ज्ञानादि की स्वामी आत्मा कर्म-परतन्त्र होने के कारण विविध कर्मों के बन्ध, उदय और विपाक के अनुसार संसार में कार्य १. जीवाभिगमसूत्र (प्रथम खण्ड) सू.९ की टीका पृ.७३ (पूज्य घासीलाल जी म.) (राजकोट १९७१ में प्रकाशित) २. (क) “अहमिंदा जह देवा, अविसेसं अहमहनि मण्णंता। ईसंति एकमेकं इंदा एवं इंदियं जाणे।" -पंचसंग्रह (प्रा.) १/६५ (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) सू.१६४ (ग) धवला १/१/१,४/८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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