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________________ वचन - संवर की महावीथी ७६९ जिस प्रकार वेदमन्त्रों के अक्षरों के साथ-साथ उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के क्रम से सस्वर उच्चारण करने का विधान है। यह विधान मंत्र जपं का अभीष्ट उद्देश्य पूरा करके शक्ति प्रवाह समुत्पन्न करने की दृष्टि से किया गया है। उसी प्रकार वाक्संवर की दिशा में शक्ति सम्वर्द्धन की दृष्टि से वाणी का प्रयोग विवेक पूर्वक सम्भल सम्भल कर करना चाहिये। अष्ट प्रकार की सावध भाषाओं का प्रयोग निषिद्ध समझकर निरवद्य शास्त्रविहित भाषा का प्रयोग करने से भी वाक्संवर की दिशा में प्रगति हो सकती है। इस प्रकार उपर्युक्त विधि-निषेधों को स्मरण में रखकर केवल वाणी का संवर होगा। उसके पश्चात् मौन, ध्यान प्रभृति द्वारा आगे बढ़ते-बढ़ते मनः संवर के साथ वाणी संवर होगा । यों मनोगुप्ति और वचनगुप्ति दोनों ही साथ-साथ चलती है और पूर्ण वाक्संवर तक पहुँचा देती है। वाक्संवर होने से वाणी में स्थिरता, शान्ति, निर्विकारता समुत्पन्न होगी और वाणी से होने वाले कर्मास्रवों का निरोध हो जाएगा। ऐसा साधक अध्यात्मयोग के साधनों से युक्त हो जाता है। बिना जिह्वा से बोले ही अपनी बात दूसरों को समझा देता है। दूसरों के अन्तःकरण में अपनी बात को स्फुरित कर देता है। इस प्रकार वाक्संवर का साधक आत्म-साधना की पराकाष्ठा तक पहुँच जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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