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________________ इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७७१ करती है; जन्म-मरणादि नाना दुःख-सुख भोगती है, आत्मा के कर्मानुसार गतिविधिया प्रवृत्ति करने में जो सहायक होती हैं, वे इन्द्रियाँ हैं। अर्थात् सहायक की भूमिका निर्वाह करने हेतु इन्द्र-कर्म द्वारा इन्द्रियों की रचना हुई है।' सर्वार्थसिद्धि के अनुसार इन्द्रिय शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार है-इन्द्र अर्थात् - ज्ञानादि ऐश्वर्य सम्पन्न आत्मा, किन्तु मतिज्ञानावरणीय कर्म के कारण स्वयं पदार्थों को जानने असमर्थ होने से उसे पदार्थों का ज्ञान कराने में जो लिंग अर्थात्-निमित्त होता है, वह इन्द्रिय है । अथवा इन्द्र-आत्मा को जो लीन अर्थात् गूढार्थ का ज्ञान कराता है, वह लिंग है । अर्थात् इन्द्र (आत्मा) का लिंग-गूढार्थ का ज्ञान कराने वाला इन्द्रिय है। इसका एक तात्पर्यार्थ यह भी है जैसे धूओं अग्नि का ज्ञान कराने में कारण (निमित्त) होता है, वैसे ही जो सूक्ष्म (अमूर्त) आत्मा के अस्तित्व का बोध कराने में लिंग अर्थात्कारण होता है, वह इन्द्रिय है।"२ प्रकट रूप में ज्ञान कराने के कारण इन्द्रियाँ अक्ष तथा प्रत्यक्ष कहलाती हैं - इस सब का निष्कर्ष यह है कि जीवों के अंग जो उन्हें विविध पदार्थों को प्रकट रूप से ग्रहण- ज्ञान करने में अथवा बाह्य अनुभूतियों को ग्रहण करने में सक्षम होते हैं, वे विविध इंन्द्रिय हैं। " सामान्यरूप से इन्द्रियाँ उन्हें ही कहा जाता है, जो देखने, सुनने, सूंघने, स्वाद लेने और छूने (स्पर्श) करने में सहायक होती हैं। इसीलिए धवला में इन्द्रिय शब्द का निर्वाचन किया गया है जो प्रत्यक्ष में प्रवृत्ति करती हैं; उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं। प्रत्येक अक्ष अर्थात् इन्द्रिय की विषय प्रवृत्ति प्रत्यक्ष होती है। इन्द्रियों के विषय अथवा इन्द्रियों का बोध रूप व्यापार प्रत्यक्ष (प्रकट) में होता है। इस दृष्टि से इन्द्रिय अपने-अपने विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान करती कराती हैं।* (क) तत्त्वार्थ राजवार्तिक २/१५/१/९ ( डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य सम्पादित ) पृ.१२९. (ख) "यदिन्द्रस्यात्मनो लिंग, यदि वा इन्द्रेण कर्मणा सृष्टं जुष्टं तथा हुष्टं दत्तं वेति तदिन्द्रियः ॥” - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) ( जीव प्र. ) १६५ में उद्धृत इन्द्र आत्मा, तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरण क्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य सदर्थोपलब्धि लिंग तदिन्द्रियस्य लिंगमिन्द्रियमित्युच्यते । अथवा लीनमर्थ गमयतीति लिंगम् । आत्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिंगमिन्द्रियम् यथा धूमोऽग्नेः । *" "अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते। तेनसृष्टमिन्द्रियमिति । -सर्वार्थसिद्धि १/१४/६-८/३ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष मा. १ में 'इन्द्रिय' शब्द, पृ. ३१४ ४. श्रमणोपासक १० दिसम्बर १९९० में प्रकाशित - जैनदर्शन में इन्द्रिय- अवधारणा, लेख से 1. प्रत्यक्ष-निरतानीन्द्रियाणि अक्षाणीन्द्रियाणि, अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षविषयोऽक्षजो बोथो • वा। तत्र निरतानि व्यापृत तानि इन्द्रियाणि । - धवला १/१,१,४/१३५-१३६/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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