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________________ कर्मों का आस्रव : स्वरूप और भेद अथ कर्म-आगमन-जिज्ञासा . संसार के सभी प्राणी कर्मों से युक्त हैं। प्रतिक्षण कर्मों का आवागमन चलता रहता है, प्राणियों के जीवन में । जिन कर्मों का आगमन होता है, वे जीव से श्लिष्ट होकर बंध जाते हैं, देर-सबेर अपना फल देकर चले जाते हैं। फिर नये कर्म आते हैं, और इसी तरह अपना फल भुगता कर चले जाते हैं। कुछ भी पता नहीं चलता है, अल्पज्ञ जीव को कि कर्म कब आया, कैसे आया और कब अपना फल देकर चला गया ? संसार के अगणित प्राणी खासकर मानव भी इस विषय में प्रायः नहीं जानते हैं और न ही कभी जानने का प्रयल करते हैं कि, “हम यहाँ इस लोक में, इस रूप में क्यों और किस कारण से आए हैं ? कहाँ से आए हैं ? कहाँ जाना है ?'' ___ जो व्यक्ति, कुछ जिज्ञासु होते हैं, उनके कानों में कर्मसिद्धान्त की बातें तो खूब टकराती हैं, वे इतना भर अवश्य जानते हैं कि जीव जैसा शुभ-अशुभ कर्म करता है, वैसा ही शुभ-अशुभ फल भोगता है। उनकी जिज्ञासा बार-बार होती है कि कर्म का आगमन (आसव) क्यों और कैसे होता है ? उस कर्मानव का स्वरूप क्या है ? कितने प्रकार का है वह ? कैसे वह बिना बुलाए ही आ जाता है ? या कैसे खिंचा चला आता है ? कैसे वह स्वभावतः निर्मल, शुद्ध आत्मा के चिपक जाता है ? क्या कर्म को आते हुए रोका भी जा सकता है ? ___ वस्तुतः कमों के आगमन के इन तथ्यों पर जितना गहराई और व्यापक रूप से जैनदर्शन ने प्रकाश डाला है, उतना किसी अन्य दर्शन, धर्म या मत ने इस पर प्रकाश नहीं डाला। कर्मों को कौन बुलाता है, कैसे बुलाता है ? शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन को जैनकर्म विज्ञान की भाषा में “आम्रव" कहते १. तुलना करें-"एवमेगेंसिं णो णातं भवति, अत्यि मे आया ओववाइए, णत्यि मे आया ओववाइए, के अहं आसी ? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ?" -आचारांग श्रु. १ अ १ उ. १ सू. २ २. 'पुण्य-पापागमद्वारलक्षणः आसवः ।' -राजवार्तिक १/४/१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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