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________________ वचन-संवर की महावीथी ७५३ सम्राट् कोणिक की रानी पद्मावती के थोड़े-से उत्तेजक बोल - "यह हार और हाथी तो आपके पास ही शोभा देता है", भयंकर रूप में कोणिक के हृदय में प्रविष्ट हो गए और वह हलविहल्लकुमार के अधिकार में प्राप्त हार और हाथी को हथियाने के लिए अपने मातामह गणराज्याध्यक्ष चेटकराज के साथ भयंकर युद्ध छेड़ बैठा। उस संग्राम में एक करोड़ अस्सी लाख व्यक्ति मारे गए। कितना भयंकर था वह वाक्यवाण ।' इसीलिए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है - "लोहे के कांटे तो केवल मुहूर्तभर दुःखदायी होते हैं, बाद में तो वे भी उस अंग में से सुखपूर्वक निकाले जा सकते हैं, किन्तु वाणी से निकले हुए दुर्वचनरूपी काँटे कठिनता से निकाले जा सकने वाले तथा वैर की परम्परा बढ़ाने वाले और महाभयकारी होते हैं। वाणी की सर्वतोमुखी प्रभाव क्षमता इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि वाणी का कार्य केवल जानकारी करा देना भर नहीं है, अपितु शब्द- प्रवाह के साथ-साथ उनके जो प्रभावोत्पादक प्रेरक तत्त्व भी जुड़े रहते हैं, वे ध्वनि कम्पनों के साथ घुल-मिल कर जहाँ भी टकराते हैं, वहाँ विद्युत् की तरह चेतनात्मक हलचल पैदा कर देते हैं। पदार्थ-विज्ञान की कसौटी पर शब्द को कसा जाए तो उसे केवल भौतिक तरंग या स्पन्दन मात्र कहा जा सकता है, किन्तु चेतना को प्रभावित करने वाली उसकी संवेदनात्मक क्षमता की यथार्थ व्याख्या भौतिक विज्ञान द्वारा नहीं हो सकती। उसे अध्यात्मविज्ञान के मनीषियों एवं तत्त्वचिन्तकों ने विशुद्ध आध्यात्मिक बताया है। वाणी की आध्यात्मिक शक्ति से दिव्यगुणद्रोही तत्त्ववेध ‘अमरकोश' में बताए गए वाणी के पूर्वोक्त समस्त रूपों को सम्यकूरूप से प्रयुक्त एवं अभिव्यक्त करने पर ब्रह्मज्ञानी (विप्र ) स्व-पर के दिव्यगुणद्वेषी तत्त्वों (जैन दृष्टि से . पापानवों) का भेदन करता है; इसी तथ्य को 'अथर्ववेद' में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है- “जिह्वा जिसकी प्रत्यंचा है; उच्चारण किया हुआ शब्द जिसका बाण है, संयम जिसका बाणाग्र है, तप से जिसे तीक्ष्ण किया जाता है, आत्मबल जिसका धनुष है; ऐसे वाणी के विविध शस्त्रों से युक्त ब्रह्मज्ञानी अपने वाक्रूपी मंत्रबल से समस्त दिव्यगुण-द्रोही तत्त्वों को वेध (भेदन कर ) डालता है।"" देखें - निरयावलिका सूत्र में कौणिक अधिकार मुहुत्तदुक्खा हु हवंति कंटया अयोमया ते वि तओ सुउद्धरा । वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि वेराणुबंधीणि महत्भयाणि ॥ ३. अखण्ड ज्योति जनवरी १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. ५७ ४. तीक्ष्णेषवो ब्राह्मण हेतिमन्तो, यामस्यन्ति शरव्यां नसा मृषा । अनुहाय तपसा मन्पुनाचोत् दूरादेव भिन्दत्येनः ॥ १. २. Jain Education International For Personal & Private Use Only - दशवैकालिक ९/३/७ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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