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________________ ७५४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) वाणी की शक्ति और उपलब्धि का महत्व वाणी की शक्ति का जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष में कितना स्थान है, अथवा योगदान है ?, इसकी जानकारी किसी गूंगे और ओजस्वी वक्ता की स्थिति की तुलना करके देखने से मिल सकती है। भावना का आदान-प्रादन कितना प्रभावशील उपयोगी एवं व्यवहार्य है ?, इसका पता इसलिए नहीं चल पाता कि मनुष्य उस ढर्रे पर सहज अभ्यासवश चलता रहता है और उससे वह कुछ विशिष्ट निष्कर्ष नहीं निकला पाता। यदि वह मानव किसी मूक योनि का प्राणी रहा होता और बातचीत का आनन्द एवं परस्पर विचारों के आदान-प्रदान से लाभ लेने वाले मानव की सुविधा को हिसाब-किताब रखता तो पता चलता कि वाणी की उपलब्धि कितनी बड़ी और महत्वपूर्ण है। उपासनारूप दिव्यवाणी : क्या और कैसी ? भावनापूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ जब ताल-लय युक्त संगीतबद्ध या पद्यबद्ध वाणी का प्रयोग होता है, तब वह वाणी उपासना का रूप ले लेती है। ऐसी वाणी के प्रयोग के समय साधक के अन्तःकरण में मस्ती छाई रहती है। वह वाणी प्रखर भी होती है और प्रभावशाली भी। इसमें वक्ता की वाणी में प्रौढ़ता, सुविचारकता, सुविज्ञ मस्तिष्क की ज्ञान-सम्पदा भी जुड़ी हुई होती है। इसमें परिष्कृत व्यक्तित्व के साथ जुड़ी रहने वाली उच्चस्तरीय भाव-संवेदना का समावेश होता है। इसे हम दिव्यवाणी कह सकते हैं। यह वाणी बेगार काटने की व तोतारटन की तरह नहीं होती, किन्तु भाव- तरंगों. में लहराते हुए उसे गाया या गुनगुनाया जाता है। इसमें उपासना प्रक्रिया निहित मंत्राच्चार के साथ श्रद्धाभरी अनन्य तन्मयता होती है, और होती है क्रमबद्ध, तालबद्ध, लयबद्ध एवं स्वरबद्ध गुनगुनाहट या शब्दोच्चारण क्रिया । इस प्रकार की वाणी में इसके साथ एकाकार होने की तत्परता एवं भक्तिभावना होती है। ऐसी वाणी आध्यात्मिक जीवन को परिष्कृत और विकसित करती है ।" वर्ण-विन्यास की कुशलता-अकुशलता पर शुभाशुभ परिणाम वर्ण विन्यास की कुशलता पर शब्द शक्ति का चमत्कार निर्भर है। शब्दों का संयोजन इस प्रकार का होता है कि सुनने वाले पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है, उसे भी प्रिय लगता है और सुनकर प्रसन्नता पैदा होती है; जबकि एक शब्दावली-संयोजन इस प्रकार का होता है, जो सुनने वाले को भी प्रिय नहीं लगता, न ही उसे प्रसन्नता होती है, जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाक् नाडीका दन्तास्तपसाभि दग्धाः । तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून्, हृद्बलेर्धनुभिर्देवजुतेः । अखण्ड ज्योति जनवरी १९७६ से भावांश ग्रहण पृ. ५७ 9. २ . वही, मार्च १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. ९ Jain Education International For Personal & Private Use Only -अथर्ववेद ५/१८/९-८ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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