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________________ वचन - संवर की महावीथी ७५१ ब्राह्मण' में कहा गया है - ' शब्द निश्चय ही ब्रह्म है । " क्योंकि वह ब्रह्माण्डव्यापी है, जैनदृष्टि से चौदह रज्जू परिमित समग्रलोक व्यापी है। आचार्यों ने यहाँ तक कहा कि जैसे ब्रह्माद्वैतवाद एक दर्शन है, वैसे ही शब्दाद्वैतवाद भी एक दर्शन है। शब्दाद्वैतवाद में शब्द को ही ब्रह्ममय बताकर यह निरूपण किया गया है कि विश्व में शब्द ही सब कुछ है। जो प्रत्यक्ष दृश्यमान् जगत् है, वह शब्दमय ही है, शब्दों का ही प्रपंच है। जगत् का मूल शब्द है, वही ब्रह्म है, और उसी से यह वृहत् संसार व्याप्त है। यह था - शब्दाद्वैतवाद । एक जैनाचार्य द्वारा 'वाणी ब्रह्मा' नाम का प्रभावशाली मांत्रिक स्तोत्र भी रचित है। सांसारिक जीवों द्वारा कष्टहरण के लिए उसका पाठ किया जाता है। संसार के समस्त व्यवहारों का मूलाधार वाणी वाणी के बिना संसार का एक भी व्यवहार नहीं चल सकता। क्या लेन-देन, क्या शिक्षा-दीक्षा, क्या राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और क्या पारिवारिक सभी क्षेत्रों में वाणी का व्यवहार चलता है। दूसरी ओर हम यह भी अनुभव करते हैं कि हमारा जाना-माना हुआ सारा विश्व शब्दमय है। वह शब्द चाहे व्यक्त रूप में हो, चाहे अव्यक्त रूप में, सर्वत्र निरन्तर ध्वनियाँ प्रवाहित हो रही हैं। रेडियो, टेलिविजन, टेलीफोन, वायरलेस, ट्रांजिस्टर, टेपरेकार्डर, सिनेमा, वीडिओ, विविध मशीनें, कारखाने, मिल आदि के संचार के कारण सारी दुनिया शब्दमय - कोलाहल -संकुल हो रही है। संसार में कहीं वीणानाद हो रहा है, कहीं संगीतसभा जुड़ी हुई है, कहीं पुत्रादि के वियोग के कारण हाहाकार हो रहा है। कहीं पुत्र जन्म या पुत्रविवाह के मंगलमय गीत गाये जा रहे हैं। कहीं किसी आकस्मिक संकट के कारण रुदन और विलाप हो रहा है। कहीं लोग मदोन्मत्त होकर परस्पर कलह कर रहे हैं। कहीं वाद-विवाद या शास्त्रार्थ हो रहा है। इस प्रकार संसार का समग्र चित्र प्रायः शब्दमय है, ध्वनिमय है। . शब्दों से प्रकम्पन उत्पन्न होते हैं। ध्वनि तरंगें उछलती हैं। जहाँ-जहाँ तरंग है, प्रकम्पन है, कोलाहल है, वहाँ-वहाँ शब्द हैं, ध्वनियाँ हैं।" १. "शब्दो वै ब्रह्म ।" २. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण पृ. ९० ३. " क्वचिद् वीणानादः क्वचिदपि च हाहेति रुदितम् । क्वचिद्विद्वगोष्ठी, क्वचिदपि च सुरामत्त कलहः । क्वचिद्रम्या रामा, क्वचिदपि जराजर्जरतनुः । न जाने संसारे किमममृतमयं किं विषमयम् ? ॥” ४. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण पृ. ९० Jain Education International For Personal & Private Use Only - शतपथ ब्राह्मण - भर्तृहरि, वैराग्यशतक www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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