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________________ ७५० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) "ब्राह्मी तु भारती भाषा, गीर्वाग वाणी सरस्वती।” अर्थात् वाणी ब्राह्मी है-ब्रह्मरूपी है, भारती है, अर्थात् अन्तःकरण में स्थित की प्रभा में रमण कराने वाली है, भाषा है बोलचाल में, भाषण-सम्भाषण में बोली के रूप में प्रयुक्त की जाने वाली है। गिरा है - वचनेन्द्रिय - जिह्वा से प्रसूत है, अभिव्यक्त होने वाली है। वाक् है - अर्थात् वचनरूप है, वाक्यों का निर्माण करने वाली है, जिह्वा से प्रकट होने वाली स्पष्ट वाचा है। वाणी है-अर्थात् वाण की तरह प्रयुक्त की जाने पर दूसरे पर सीधी असर करने वाली है, या तो वह विरक्ति पैदा कर देती है, या अनुरक्ति या आसक्ति पैदा कर देती है। शीघ्र ही राग-विराग को प्रादुर्भूत कर देती है। और सरस्वती भी है यह। - अर्थात्-समस्त विद्याओं, कलाओं, ज्ञान-विज्ञानों एवं शिक्षण-प्रशिक्षणों की जननी है। वाणी की महिमा और गरिमा वाणी बहुत ही महान् एवं व्यापक तत्त्व है। वाणी को कागजों पर, भोजपत्रों पर या ताड़पत्रों आदि पर अंकित करके दूसरों को अपनी विचारधारा या भावना व्यक्त करने के लिए लिपि का आविष्कार हुआ। युगादि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने उस युग की यौगलिक जनता को बोध देने के लिए ब्राह्मी लिपि का आविष्कार किया, जिसका सर्वप्रथम प्रशिक्षण अपनी पुत्री ब्राह्मी को दिया । उसी के नाम पर इस लिपि को 'ब्राह्मी लिपि' कहा गया। ब्राह्मी वाणी का भी पर्यायवाचक शब्द है। जिसका व्यञ्जनार्थ भी यही होता है- ब्रह्मा-आदियुग के समाजम्नष्टा ऋषभदेव से समुद्भूत अर्थात् आविष्कृत वाणी । वाणी पर भारतीय मनीषियों और तत्त्वद्रष्टाओं ने पर्याप्त मनन-चिन्तन किया है। जितना मनन- चिन्तन 'मन' पर हुआ है, उससे भी कहीं अधिक मनन-चिन्तन वाणी पर-वचनतत्त्व पर हुआ है। चूँकि शब्दों का व्यवस्थित सार्थक समूह वाणी है। इस दृष्टि से वाणी को ब्राह्मी, ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कराने का साधन तथा 'परमब्रह्मरूपा' कहा गया है। 'भागवत्' के छठे स्कन्ध में वाणी की महिमा- गरिमा का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है- " शब्द ब्रह्म है, वही परब्रह्म है, ये दोनों मेरे (भगवान्) शाश्वतदेह के रूप में विराजमान हैं। तीर्थकर आज हमारे समक्ष विद्यमान नहीं है, और न ही विभिन्न महाज्ञानी ऋषि-महर्षि या गणधर हैं, किन्तु उनकी वाणी- जिनवाणी अक्षरदेह के रूप (अक्षर-शाश्वतरूप) में विद्यमान है। इस दृष्टि से भी उनकी वाणी को ब्राह्मी कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं । 'शतपथ १. ब्राह्मी लिपि के विषय में विस्तृत विवेचन के लिए देखें- भगवान् ऋषभदेव : एक अनुशीलन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) " शब्दब्रह्म परब्रह्म ममोभे शाश्वती तनू । " —-श्रीमद्भागवत् स्कन्ध ६ अ. १६ २. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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