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________________ ७४२ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मों का आनव और संवर (६) इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया- "बुढ़ापा जब तक पीड़ित नहीं करता, जब तक शरीर में कोई व्याधि नहीं बढ़ती, जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं हो जातीं, तब तक ( उससे पहले-पहले) धर्माचरण कर लें ।” सूत्रकृतांग सूत्र में तो स्पष्ट कहा गया है - "आयु और जवानी प्रतिक्षण व्यतीत होती जा रही है ।” “वृद्ध हो जाने पर वह मनुष्य न तो हास-परिहास के योग्य रहता है, न. ही क्रीड़ा के, न रति के और न शृंगार के योग्य रहता है।" इसलिए अगर मनुष्य यौवन वय या किशोरावस्था से ही संवरनिर्जरा रूप धर्मसाधना में लग जाए तो वह इन्द्रियों, मन, तन आदि संवरसाधना करने में अभ्यस्त हो जायेगा, थकेगा या घबराएगा नहीं। और यह तभी हो सकता है, जब व्यक्ति अपने स्थूल शरीर का सदुपयोग करे, परीषहों और उपसर्गों को भी इस सामर्थ्य पुंज शरीर से समभावपूर्वक सहन करे। आचारांग में शरीर-संवर साधना के सन्दर्भ में स्पष्ट कहा गया है - " साधक शरीर का मोह-ममत्व सर्वथा छोड़ (व्युत्सर्ग कर) दे। और किसी भी परीषह के आने पर विचार करे कि मेरे शरीर में परीषह है ही नहीं; कहाँ है ?" "ज्ञानी के लिए क्या दुःख (अरति) है, क्या सुख (आनन्द) है ? कुछ भी नहीं ।"" जो भी कष्ट हो, उसे प्रसन्नमन से सहन करे, कोलाहल न करे। (कर्म) शरीर को आत्मा से पृथक् जान कर उसे कृश करे आत्मा को शरीर से पृथक् जान भोगलिप्त शरीर को धुन डालो। अर्थात् यहाँ ( अर्हत्प्रवचन में ) आज्ञाकांक्षी पण्डित शरीर एवं कर्मादि के प्रति अनासक्त १. (क) अंतो - अंतो मति देहंतराणि पासति पुढो वि सवं वाई । पंडिते पडिलेहाए । तथा इसकी व्याख्या | (ख) देखें - "जहा अंतो, तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।", इसकी व्याख्या भी । - आचारांग १/२/५ (आगमन प्रकाशन समिति ब्यावर से प्रकाशित ) आचारांग सूत्र प्रथम श्रु. अ. २, उ. ५ सू. ९२ की व्याख्या (ग) देखें - " से पुव्वंपेतं भेउर धम्मं विद्धंसण धम्मं अधुवं अणितियं असासयं चयोवचइयं विप्परिणाम धम्मं । पासह एवं रूवसंधि । " -आचारांग १/५/२ सू. १५३ तथा इसकी व्याख्या, पृ. १५४ (घ) “जरा जाव न पीडेइ वाही जाव न वड्ढ । जाविंदिया न हायंति ताव धम्मं समायरे ॥" २. (क) जओ अच्चेति, जोव्वण च । (ख) " से ण हासाए ण कीड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए ।” (ग) “के अरइ, के आयके ?” * (घ) "वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा !" (ङ) “सुमणे अहियासेवना, न य कोलाहलं करे।" - दशवैकालिक ८/३६ - आचारांग श्रु १, अ. २ उ. १ - आचारांग १/२/१ - आचारांग १/३/३ Jain Education International For Personal & Private Use Only - आचारांग १/८/८/२१ - सूत्रकृतांग १/९/३१ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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