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________________ काय-संवर का स्वरूप और मार्ग ७४१ शरीरं को अनित्य और अशुचि जानकर इससे धर्माचरण में जरा भी प्रमाद न करो जो लोग शरीर पर अत्यधिक ममता-मूर्छा करके शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव वस्तुओं की आसक्ति में अहर्निश निमग्न रहते हैं, उन्हें सावधान करते हुए भगवान् ने कहा-"इस शरीर के अन्दर अशुचि भरी है; इसे देखो। जैसे अशुचि से भरा मिट्टी का पड़ा भीतर से अपवित्र (गंदा) रहता है, उसके छिद्रों में से प्रतिक्षण अशुचि झरती रहती है, इसी प्रकार शरीर भी भीतर से मल-मूत्रादि अशुचि से भरा है, उसके रोम-कूपों तथा अन्य द्वारों (अंगोपांगों) से अशुचि प्रतिक्षण बाहर झर रही है। पण्डित साधक शरीर के तमाम अशुचि स्रोतों को भलीभाँति देखें। शरीर की बाहर भीतर की अशुचिता (गंदगी) को देखकर विद्वान् साधक इसके सौन्दर्य या सौष्ठव के प्रति राग, मोह, ममत्व को दूर करें।" “अनिष्ट एवं असार कामभोगों में शरीर से प्रवृत्त न हों।" "यह शरीर जैसा अन्दर में असार है, वैसा ही बाहर में असार है। जैसा यह बाहर में असार है, वैसा ही अन्दर में असार है।" शरीर की क्षणभंगुरता का निरूपण करते हुए ‘आचारांग' में कहा है-"यह प्रिय लगने वाला शरीर पहले या पीछे (एक न एक दिन) अवश्य छूट जाएगा। इस रूपसन्धिदेह के स्वरूप को देखो। छिन्न-भिन्न और विध्वंस होना इसका स्वभाव है। यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसमें चय-उपचय (घट-बढ़) होता रहता है। विविध परिवर्तन होते रहना, इसका स्वभाव है।" अप्रमाद के पथ पर चलने वाले साधक को एक सजग प्रहरी की भाँति सचेष्ट और सतर्क रह कर, खासतौर से शरीर पर-स्थूल शरीर पर ही नहीं अपितु सूक्ष्म कार्मण शरीर पर भी विशेष देखभाल रखनी पड़ती है। इसकी हर गतिविधि को बारीकी से जाँच-परख कर आगे बढ़ना होता है तथा समय रहते इस शरीर से सारभूत पदार्थ (संवर-निर्जरारूप धर्म) की साधना कर लेनी चाहिए। जैसे-जैसे साधक अप्रमत्त होकर स्थूल शरीर की क्रियाओं और उनसे मन वाणी पर होने वाले प्रभावों को गहराई से निरीक्षण करने का अभ्यास करता जाता है, वैसे-वैसे उसमें कार्मण शरीर की गतिविधि को देखने की शक्ति भी आती जाती है। शरीर के सूक्ष्म प्रेक्षण का इस प्रकार दृढ़ अभ्यास होने पर अप्रमाद की गति बढ़ती है और शरीर से प्रवाहित होने वाली चैतन्य धारा की उपलब्धि होती जाती है। इसी तथ्य के सन्दर्भ में भावपाहुड में कहा गया-"बुढ़ापा जब तक आक्रमण नहीं करता, जब तक रोग रूपी अग्नि तुम्हारी देहरूपी झोंपड़ी को नहीं जलाती है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति विगलित-क्षीण नहीं होती, तब तक आत्महित के लिए (संवरादि धर्मसाधना में) प्रयत्न कर लो।" १. उत्थडइ जा ण जरओ, रोगम्मी मा ण उहइ देहइणि। इंदिय बले न विगलाइ, ताव तुम्मं कुणइ अपहियं ॥ -भाव पाहुड १३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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