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________________ काय - संवर का स्वरूप और मार्ग ७४३ (स्नेहरहित) होकर एकमात्र आत्मा की संप्रेक्षा करता (देखता हुआ शरीर (कर्मशरीर) को प्रकम्पित कर डाले, (तपश्चरण द्वारा) अपनी कषायांत्मरूप कर्मशरीर को कृश कर डाले, जीर्ण कर डाले। जैसे आग जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला व्यक्ति अनासक्त (निःस्पृह) होकर प्रकम्पित, कृश एवं जीर्ण हुए कषायात्मरूप कर्मशरीर को (समिति, गुप्ति, परीषहजय, तप, ध्यानरूप अग्नि से ) शीघ्र जला डालता है।"" कुछ लोगों का कहना है कि भगवान् महावीर दीर्घतपस्वी थे, उन्होंने लम्बी-लम्बी तपस्याएँ की थीं। तथा कायक्लेश, अभिग्रह आदि तप भी करते थे। इस प्रकार का कठोर और दीर्घकालिक तप करके वे शरीर को कष्ट देते थे, तब कैसे कहा जाए कि "उन्होंने काया की सुरक्षा की, अथवा काया को शीघ्र समाप्त करने का उपक्रम नहीं किया ?". भ. महावीर की काय - संवर साधना : काया को समाप्त करने के लिए नहीं, साधने के लिए थी हमारी दृष्टि से ऐसे स्थूल दृष्टि वाले लोग भगवान् महावीर को और उनकी साधना तथा चर्या को समझने में भूल करते हैं। उन्होंने जो कुछ भी तपश्चरण, कायोत्सर्ग, कायक्लेश या कायगुप्ति - पालन आदि किया, वह संवर और निर्जरारूप धर्म के पालन की दृष्टि से किया है। तपस्या आदि करते समय भी उन्होंने शरीर पर से मोह, ममत्व, आसक्ति को हटाने एवं शरीर को आत्म-साधना के योग्य बनाने की दृष्टि रखी है। अगर उन्हें शरीर का शीघ्र त्याग करना होता तो, वे लम्बी बाह्य तपस्या के पश्चात् भी पारणा नहीं करते, न ही शरीर को चलने फिरने, अपनी संयमचर्या करने, या विहारादि करने लायक रखते, औपपातिकसूत्र में वर्णित बालतपस्वियों की तरह शरीर को पापकर्मों का आयतन समझकर पंचाग्नि तप आदि से या अन्य किसी उपाय से शीघ्र ही समाप्त कर डालते। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया है, और न ही अपने अनुगामी साधकों को ऐसा करने का निर्देश दिया है। · शरीर जहाँ तक तपस्या आदि में साथ दे सकता है, वहाँ तक उन्होंने शरीर को उपवासादि तपस्या में साथ लिया, परन्तु जब शरीर साथ देने में अक्षम होने लगा, तब उन्होंने शरीर को आहार- पानी भी दिया है, विश्राम भी दिया है। उन्होंने देखा कि शरीर को बिलकुल छोड़ना या तोड़ना भी नहीं है, न ही इसे मूर्खतापूर्ण ढंग से, आर्त्तध्यान करते १. (क) देखें - एगमप्पाणं संपैहाएं धुणे (कम्म) सरीरगं । (ख) "कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं ।" (ग) जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहोपमत्थइ, एवं अत्त समाहिए अणि । Jain Education International - आचारांग १/४/३ तथा इनकी व्याख्या, पृ. १३४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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