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________________ ७३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) इस निकटता और तादात्म्यता की स्थिति के कारण ही आचार्य कुन्दकुन्द' ने शरीर को चेतन भी कहा है। ... भ. महावीर से जब पूछा गया 'मन और वाणी चेतन है या अचेतन ?' उन्होंने कहा-अचेतन। पुनः जिज्ञासा शरीर के सम्बन्ध में प्रस्तुत की गयी तो उन्होंने कहा-वह चेतन भी है और अचेतन भी। पूर्वोक्त कारणों से उन्होंने शरीर को कथञ्चित् सजीव बतलाया। अतः काया को जो निर्देश दिया जाता है वह निर्देश चेतना को प्राप्त होता है क्योंकि काया के अणु-अणु में चेतना है। यही कारण है कि वह हमारे निर्देश को स्वीकार कर लेता है और तदनुसार करने को भी प्रस्तुत हो जाता है। यदि शरीर को योग्य निर्देश दें या अभ्यास करें तो उसमें आश्चर्यजनक स्थिरता आ जाती है। जब कायोत्सर्ग सम्यक प्रकार से सध जाता है तो मन और वचन स्वतः स्थिर हो जाते हैं। जहाँ काया में चंचलता होगी वहाँ मन में भी चंचलता होगी। स्थूल शरीर में चंचलता क्यों होती है और वह कैसे दूर हो ? प्रश्न है-स्थूल शरीर में चंचलता क्यों होती है ? वह कब तक रहती है और कब मिटती है ? उत्तर में जैन कर्मविज्ञान का मन्तव्य है-शरीर के साथ जब चेतन करन्ट का योग होता है तब उसमें चंचलता पैदा होती है। शरीर को काया रूपी मशीन के साथ जोड़ना काययोग है। काययोग होते ही काया चंचल और प्रकम्पन युक्त हो जाती है। यह चंचलता तब तक बनी रहती है जब तक पूर्वोक्त रीति से कायसंवर के द्वारा काया की प्रवृत्ति का निरोध नहीं होता। जैसे पानी में मिट्टी मैल या कचरा मिला हुआ है तो वह जल चंचल होगा। उस जल में तरंगें उठेगी। यदि जल को निर्मल और निस्तरंग या स्थिर बनाना है तो चंचलता मुक्त होना होगा। शरीर की चंचलता को दूर करने के लिए उसके द्वारा होने वाली प्रवृत्तियों का निरोध करना होगा। जब शरीर स्थिर होता है तो वाणी और मन भी स्थिर हो जाते हैं। जब इन सबकी चंचलता मिटती है तब आत्मदेव के दर्शन होते हैं। प्रश्नव्याकरण और उत्तराध्ययन आदि में निर्जरा के पूर्व संवर की साधना बतायी है। प्रथम संवर साधना के द्वारा कमों के आगमन पर नियन्त्रण होगा। उसके पश्चात् ही कर्मों को निर्जरित किया जा सकता है। प्रश्न है-किस कारण से स्थूल शरीर में चंचलता उत्पन्न होती है। उत्तर में निवेदन १. ववहार णओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को। ण दु णिच्छयस्स जीवो, देहो य कदावि एकट्ठो॥ -समयसार २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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