________________
काय - संवर का स्वरूप और मार्ग ७३७
है- हमारे पास तीन वस्तुएँ हैं (१) आत्मा शुद्ध आत्मा का अस्तित्व, (२) कर्म शरीर, (३) स्थूल औदारिक और वैक्रिय शरीर ।
स्थूल शरीर में चंचलता उत्पन्न करने का मूल कर्मशरीर है जो बहुत ही सूक्ष्म है। वह कर्म शरीर ही स्थूल शरीर में और मन और वाणी में चंचलता समुत्पन्न करता है। इसी कर्मशरीर से स्थूल शरीर का निर्माण होता है।
आत्मा तो शुद्ध चेतन है और शरीर अचेतन है। चेतन अचेतन शरीर का निर्माण नहीं कर सकता। अगर चेतन द्वारा अचेतन सृष्टि का निर्माण होने लगे तब तो सचेतन ईश्वर रूप उपादान द्वारा उपादान के विपरीत अचेतन सृष्टि का कर्तृत्व भी मानना होगा। पर यह कदापि सिद्ध नहीं हो सकता कि चेतन से अचेतन का सृजन होता है।
कर्मशरीर जिसे कार्मण शरीर कहते हैं वह सूक्ष्मतम है, अचेतन है। उसी से स्थूल शरीर का निर्माण होता है और उसी के अन्तर्गत मन और वाणी का भी निर्माण होता है। कर्मशरीर के द्वारा ही स्थूल शरीर का निर्माण होता है। कर्मशरीर अचेतन है तो औदारिक शरीर आदि भी अचेतन है। अतः अचेतन के द्वारा ही अचेतन का सृजन होता है। सूक्ष्मतम कर्मशरीर और स्थूल शरीर प्रवृत्तियों के प्रेरक और कर्ता होने से कर्मों के आम्नव और बन्ध के कारण बनते हैं। आत्मा नहीं चाहता कि कोई उसकी शक्ति को कर्म रूपी पिंजरे में आबद्ध करे । स्थूल शरीर की प्रवृत्तियों के कारण सूक्ष्म शरीर- कार्मण शरीर चंचलता और प्रकम्पन पैदा करता है, यही आम्रव द्वार है ! बन्धन का कारण है।
भ. महावीर ने आचारांग सूत्र' में संवरशील साधकों को प्रेरणा देते हुए कहाऊपर (ऊर्ध्वलोक में) कर्मों के आगमन के स्रोत हैं। नीचे (अधोलोक में) कर्मों के आने के नोत है। मध्यलोक में कर्मानव के स्रोत हैं। ये स्रोत ही आनव द्वार है जिनके द्वारा समस्त गणियों को विषय सुखों में आसक्ति समुत्पन्न होती है। ऐसा तुम देखो ।
सार यह है कि कर्मशरीर के कारण ही हमारे मन, वाणी और शरीर में चंचलता दा होती है। आत्मा यही चाहता है कि उसे सूक्ष्म शरीर से छुट्टी मिले, पर सूक्ष्मशरीर उसे छोड़ना नहीं चाहता। वह अपने अस्तित्व को बरकरार रखना चाहता है और इसीलिए उसने यह चक्रव्यूह रच रखा है जिसे बाह्यशक्ति सहसा भेदन नहीं कर पाती । स्थूल शरीर श्री सूक्ष्म शरीर का सम्पोषण कर रहा है। स्थूल शरीर की प्रवृत्ति से ही सूक्ष्म शरीर टिका हुआ है और स्थूल शरीर के कारण ही मन और वाणी की प्रवृत्ति चल रही है। यदि स्थूल शरीर की प्रवृत्ति बन्द हो जाए तो मन, वाणी और कर्मशरीर का अस्तित्व भी समाप्त हो
जाए।
उड्ढ सोता, अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया ।
एते सोया वियक्खाया जेहिं संगेति पासहा ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- आचारांग १/५/६
www.jainelibrary.org