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________________ काय-संवर का स्वरूप और मार्ग ७३५ में जब छेद हो जाते हैं तब उसमें हिंसा आदि या कषाय आदि आम्रवों का आगमन प्रारम्भ हो जाता है। सछिद्र नौका रूप शरीर आम्नवद्वार है। द्वार खुला रहने पर उसमें कुछ भी आ सकता है- आँधी, कचरा, गंदगी, धूल। अवांछनीय व्यक्ति भी खुले द्वार में प्रविष्ट हो जाता है। आनव रूपी पानी के भरने से वह भारी हो जाती है जिससे डूबने का भय रहता है। कुशल नाविक आस्रव रूपी छिद्रों को बन्द करता है और पूर्व जो आम्नव रूपी जल आ गया है उसे तप और संयम से उलीचकर बाहर फैंक देता है। जिससे नौका पुनः शान्त और स्थिर होकर तैरने लगती है। ___अकुशल अविवेकी जीव रूपी नाविक सावधान और अप्रमत्त नहीं रहता। शरीर-नौका में छेद हो जाने से आनव जल भरने लगता है। शुभाशुभ कर्म रूपी जल तीव्रगति से शरीर रूपी नौका में प्रविष्ट होता है जिससे नौका भारी होकर डूबने लगती है। कायसंवर साधक कुशल नाविक की तरह शरीर-नौका के छिद्रों को दूर करता है। आम्रवों को अनानव करता है और एक दिन वह संसार समुद्र को पार कर लेता है। ____ जब शरीर की क्रिया सूक्ष्म और स्थिर हो जाती है, तब शुद्ध ध्यान हो सकता है। शरीर जब शान्त और स्थिर होता है तब मन भी शान्त और स्थिर हो जाता है। शरीर में स्थिरता आ जाने से ऊर्जा, शक्ति और उष्मा बढ़ जाती है। ध्यान की क्षमता में अत्यधिक . वृद्धि हो जाती है जिससे अर्जित संस्कार विनष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार जलती हुई आग में घास डालने से वह क्षण मात्र में जलकर भस्म हो जाता है, गर्म तवे पर जल बिन्दु डालने से वह सूख जाती है वैसे ही आसव छिद्रों को 'बन्द करने से आनव युक्त क्रियाओं पर नियन्त्रण करने शरीर स्थिर हो जाती है और स्थिर अवस्था में पूर्वोपार्जित संस्कार जलने लगते हैं। तप और संयम से वे कर्मनष्ट हो जाते हैं। __समस्त क्रियाओं, प्रवृत्तियों या स्पन्दनों, कम्पनों का मूल उद्गम स्थान काया है। यदि काया का अस्तित्व नहीं है तो कोई भी क्रिया, प्रवृत्ति या शक्ति चाहे वह शरीर की हो, मन की हो. प्राणों की हो या अंगोपांगों के हलन-चलन की हो अथवा वाणी या बद्धि की हो, नहीं हो सकेगी। काया की क्रिया जितनी तीव्र तीव्रतम होगी उतने ही संस्कारों का निर्माण भी तीव्रतम होगा। कम्पन के द्वारा ही संस्कार निर्मित होते हैं। अक्रिया में कम्पन का अभाव होता है इसलिए उसमें परिवर्तन भी नहीं होता। काया व्युत्सर्ग का अर्थ है'शरीर सम्बन्धी मोह और ममत्व का हट जाना।' - जैन सिद्धान्त की दृष्टि से देखा जाए तो काया के साथ हमारी चेतना और प्रवृत्तियों का बहुत ही गहरा सम्बन्ध है। काया के अणु-अणु में चेतना व्याप्त है। चेतना के बिना काया की कोई भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। चेतना की अभिव्यक्ति भी काया से ही होती है। चेतना की अभिव्यक्ति का सबसे प्रथम और निकटवर्ती साधन स्थूल शरीर है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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