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________________ काय - संवर का स्वरूप और मार्ग ७२७ अगर यह शरीर परमात्मा का निवासस्थान होता तो इतना पराश्रित, दुर्बल, असहाय, घृणित और असमर्थ कैसे होता है ? इसमें न तो कोई स्थायित्व का निश्चय है, अर्थात् यह नश्वर है, क्षणभंगुर है, किसी भी समय नष्ट-भ्रष्ट हो सकता है, समाप्त हो सकता है ! और न ही इस शरीर में कोई आनन्द, उल्लास, संतोष, शान्ति और चैन है। चार्वाक आदि नास्तिकों के प्रतिपादन के अनुसार पंचभूतों से बना हुआ यह शरीर पानी के बुलबुले की तरह उत्पन्न होकर नष्ट होने वाला और फिर विस्मृति के गर्त में समा जाने वाला है। न तो इसके पीछे का कोई अता-पता रहेगा और न आगे का । यदि ऐसा ही यह शरीर है तो यह गर्व या गौरव किया जाने वाला कोई तत्त्व नहीं है, प्रत्युत अपने और इस धरती के लिए भारभूत है ! फिर पवित्र अन्न को खाकर घृणित मल में परिवर्तित करते रहने वाले कोटि-कोटि छिद्रों वाले इस कलेवर से दुर्गन्ध और मलिनता बिखेरने वाला यह अस्पृश्य और घिनौना शरीर किस काम का ? जिस सुन्दर शरीर पर मोह करके उसे अच्छा-अच्छा खिलाया पिलाया, सुन्दर. वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित किया, सुगन्धित पदार्थों से सुवासित किया, सौन्दर्य प्रसाधनों से प्रसाधित किया, और तो क्या, जिस शरीर के प्रति पूरी तरह मानव समर्पित हो गया, जिसके साथ घुल-मिल गया, वही पालित-पोषित शरीर मौत के एक ही थपेड़े में कितना निरर्थक, घृणित, कुरूप और विकृत हो जाता है ! इसे देखकर रोमांच हो जाता tr ऐसा ही नाशवान्, अन्तवान् शरीर है, जिसका परिणाम अकस्मात् मृत्यु हैं; जो तेजी से आँधी-तूफान की तरह उमड़ती - घुमड़ती चली आ रही है ! और मृत्यु के बाद इस शरीर को घर से हटा देने, नहीं नहीं, सदा के लिए इस शरीर का अस्तित्व मिटा देने के लिए उससे सम्बन्धित परिजन-स्नेहीजन आतुर हो उठते हैं। हाय ! यह मृत काया अब कैसी दयनीय, मलिन एवं घिनौनी बनी जमीन पर डाल दी जाती है। अब तो यह पलंग और बिस्तर पर सोने का भी अधिकार खो बैठती है। अब कोई चिकित्सक इसका इलाज करने को तैयार नहीं होता। कोई बेटा - पोता अब गोदी में नहीं आता। पत्नी छाती - माथा तो कूटती है, पर पास आने से डरती है। इस शरीर से सम्बद्ध जो भी धन, साधन, अधिकार, सम्मान और अपनापन था, वह सब छिन जाता है। मेरे कहलाने वाले लोग भी शरीर के नष्ट होते ही दुर्गति के साथ घर से निकाल देते हैं, सर्वस्व छीन कर । इस शरीर से सम्बद्ध परिवार, घर, तथा मान-सम्मान के लिए जितने भी अरमान संजोए थे, जितना भी पुरुषार्थ किया था, वह सब मिट्टी में मिल जाता • अखण्ड ज्योति मार्च १९७२ में प्रकाशित लेख : " क्या मैं शरीर ही हूँ, उससे भिन्न नहीं ?" से भावांश ग्रहण पृ. ३, ४, ५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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