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________________ ७२८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) .. जिस शरीर को लेकर मनुष्य बड़े अरमानों के साथ जीता है, शरीर और शरीर से सम्बद्ध जीवन और परिवार के लिए बहुत कुछ संजोता-संभालता है, पर शरीर मृत होते ही वह सारी दौड़धूप निरर्थक हो जाती है। काया तक भी उसका साथ नहीं देती। जिस काया के सुख-दुःख को शरीरधारी अपना सुख-दुःख समझता है, वह अपनी काया . भी उसके लिए पराई हो जाती है। जब देहधारी की अभिन्न सहचरी काया भी साथ छोड़कर चली जाती है, तब माया और अन्य सब सम्बन्धित नर-नारी भी साथ छोड़ दें, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? काया का अन्त होने पर कुछ अर्से तक उसकी छवि (फोटो) के रूप में उसे याद किया जाता है। श्राद्ध, तर्पण आदि का सिलसिला भी कुछ अर्से तक चलता है। दो-तीन पीढ़ी तक बेटे-पोतों को इस शरीर का नाम याद रहता है। फिर स्मृति धुंधली हो जाती है। फिर इस शरीर का नाम-निशान भी मिट जाता है। ऐसी असमर्थता एवं हीनता से ग्रस्त लोग शरीर से कुछ भी संवर संयम नहीं कर पाते ऐसे हीन-भावनाग्रस्त लोग शरीर की असमर्थता, अक्षमता और दीन-हीनता का रोना रोकर इस प्रकार के एकांगी दृष्टिकोण के कारण जिंदगीभर कुछ नहीं कर पाते और यों ही शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव वस्तुओं के प्रति मोह-ममत्व, अहंकार-ममकार तथा सांसारिक पदार्थों की लालसा-तृष्णा की मृग-तृष्णा में भटकते हुए सदैव अतृप्त, असन्तुष्ट एवं असमर्थ बने रहते हैं। ऐसे एकांगी दृष्टिकोण वाले लोग जिंदगीभर अपने दुःख-दौर्भाग्य का रोना रोते रहते हैं, मरते समय तक शरीर से किसी प्रकार का त्याग, तप, नियम-व्रतपालन, तितिक्षा, धर्मपालन के लिए कष्ट सहन, संवर और संयम नहीं कर पाते। वे आजीवन शरीर को लेकर मोह-ममत्व, लालसा-तृष्णा के झूले में झूलते रहते हैं। शरीर के प्रति अध्यात्म साधकों का काय-संवर मूलक स्पष्ट दृष्टिकोण इन सभी अतिवादी और एकांगी दृष्टिकोणों के अतिरिक्त अध्यात्म-साधकों का शरीर के प्रति अनेकान्तवादी तथा संवरमूलक एक स्पष्ट दृष्टिकोण है। उन्होंने कहाशरीर धर्म-पालन के लिए प्रथम साधन है। यही परमात्मा-शुद्ध आत्मा के विराजमान होने का पवित्र स्थान है; पवित्र प्रभु-मन्दिर है। आत्मा की ज्ञानादि शक्तियों को प्रकट करने के लिए, तप, संयम, संवर, क्षमा, दया, मृदुता, ऋजुता आदि धर्मों के आचरण द्वारा अध्यात्मविकास के लिये शरीर एक १. वही, मार्च १९७२ में प्रकाशित लेख से, पृ. ४ २. 'शरीरमाचं खलु धर्मसाधनम् ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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