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________________ ७२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर. (६) मैं समझता हूँ; शरीर के प्रति इस प्रकार का अतिवादी और कठोर दृष्टिकोण अपनाने से शरीर का निरोध तो क्या होगा प्रत्युत उससे जो तप, जप, व्रताचरण, यम-नियम, तितिक्षा, परीषहजय आदि की साधना की जा सकती थी उसमें अवरोध उत्पन्न हो जाएगा। चार्वाकादि मत समर्थक अतिभोगवादी दृष्टिकोण: काय-संवर से विपरीत दूसरी ओर प्रत्यक्षवादी चार्वाक, नास्तिक, भोगी, विलासी एवं कामुक तथा पापाचरण परायण, आलसी एवं मूर्ख लोगों का दृष्टिकोण यह है कि इस शरीर से. जितनी भी मौज-शौक कर सको करो, किसी प्रकार का कष्ट मत दो इसे । इसे खूब नहलाओ, धुलाओ, शृंगार और साजसज्जा के साथ इसे रखो। इसे अच्छे-अच्छे पौष्टिक पदार्थ खिलाओ, पिलाओ, कामभोगों का यथेष्ट सेवन करो। इस शरीर के नष्ट होने के बाद फिर कहीं न जाना है और न आना है। इसलिए शरीर को खूब मोटा-ताजा बनाओ और सुख से रहो। शरीर के प्रति इस प्रकार का एकान्त भोगवादी दृष्टिकोण भी एकांगी और भ्रान्तिपूर्ण है। . हीनताग्रस्त लोगों का काया के प्रति अति-असमर्थतामूलक दृष्टिकोण कुछ लोग हीनभावना, कुण्ठा और दीनता की दृष्टि से शरीर को देखते-समझते - हैं। वे लोग काया को हीन, दीन, पराश्रित, परसहायापेक्ष, नश्वर, आनन्द से रहित, घृणित और धरती के लिए भारभूत समझते हैं। उनका कहना है कि शरीर क्या है ? वह कष्ट, चोट, भूख-प्यास, शीत, ताप आदि से पद-पद पर व्याकुल हो जाता है। अपनी सहायता और सुरक्षा के लिए अन्न, वस्त्र, मकान, चिकित्सा, सेवा, सहायता, शिक्षणसंस्कार, आदि पर निर्भर रहने वाला शरीर कितना असहाय और असमर्थ है ? इस शरीर की हंसी-खुशी और प्रगति दूसरों की कृपा पर ही तो निर्भर है। जिस शरीर को जीवित रखने के लिए स्वयं को सदैव पराश्रित, दीन, दुर्बल रखा जाता है। इसी शरीर के तीन पड़ाव होते हैं - बचपन, जवानी और बुढ़ापा ! बाल्यावस्था खेलकूद में और युवावस्था रंगीन विषयोन्माद में तथा चंचलता और अतृप्ति में बीतती है । फिर आ जाती है, शरीर की वृद्धावस्था । इसमें शरीर की, अंगोपांगों की और इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होने लगती है। बुढ़ापे में शरीर की स्थिति निरर्थक और उपेक्षित हो जाती है। इस जराजीर्ण वृद्ध काया पर आँखों में मोतियाबिंद, कमर और घुटनों में दर्द, खाँसी और अनिद्रा जैसी व्याधियाँ घायल गधे पर उड़कर कौए द्वारा बार-बार चोंच मारने की तरह आक्रमण करने लगती हैं। अपाहिज और अपंग की तरह इस जीर्ण-शीर्ण शरीर को लेकर जिन्दगी काटना कितना भयावह है ! शरीर का यह घिनौना और डरावना रूप देखकर रोम-रोम काँपने लगता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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