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________________ काय-संवर का स्वरूप और मार्ग काया के प्रति एकांगी और गलत दृष्टिकोण : काय-संवर नहीं ___काया का नाम लेते ही हमारे सामने हड्डी-मांस के एक ढाँचे की कल्पना आती है। शरीर को हाड़-माँस का पुतला कहकर बहुत ही नगण्य, तुच्छ और घृणित बताया गया है। कई धर्मशास्त्रियों ने इसे उपेक्षणीय, निन्दनीय एवं घृणाजनक माना है। अनेक पण्डितों ने इस शरीर को हराम का हाड़, अत्यन्त बुरा, त्याज्य, उपेक्ष्य एवं निन्द्य कहकर कोसा है। कई लोगों ने इसे नश्वर और असार तथा व्याधि-मन्दिर कहा है। कई लोग इतना ही करके नहीं रह गए। उन्होंने शरीर को पाप का आयतन समझकर इसे झंपापात से, विषपान से, अथवा गले में फाँसी लगाकर शीघ्र से शीघ्र समाप्त करने का साहस भी किया है। उन्होंने शरीर को बिना ही किसी उद्देश्य के, किसी प्रकार के विवेक-विचार के बिना यों ही धुन में आकर भूखा रखने, इसे चिमटों या लोहे की मोटी सांकलों से प्रताड़ित करके अत्यन्त दुर्बल बनाने तथा इसका अन्त करने का दुष्प्रयास भी किया है। ऐसे भी कई लोग हैं जो शरीर की मूल आवश्यकताओं की बिलकुल उपेक्षा करके उसे गाली देते रहते, उसके विभिन्न अवयवों से कोई अपराध या दोष हो जाता तो उस अवयव को काट डालते, नष्ट कर देते और ऐसा करके वे यह समझते थे कि हमने शरीर के अमुक-अमुक अंग से होने वाले अपराध को समाप्त कर दिया। . कई लोग शरीर के द्वारा हुए अपराधों, पापों और दोषों के परिमार्जन के लिए अमुक-अमुक तीर्थों, नदियों अथवा जलाशयों में उसे नहलाते, शरीर से उसमें डुबकी लगाते और घंटों जलाशय में खड़े रहकर शरीर को स्नान कराते। परन्तु शरीर के प्रति इस प्रकार की कठोरता अपनाने, उसके अंगोपांग को भंग कर देने या उस पर हद से ज्यादा ज्यादती करने से क्या शरीर से होने वाले पापों की शुद्धि हो गई ? अथवा शरीर से हो जाने वाले अपराधों और दोषों की समाप्ति हो गई ? क्या उपर्युक्त तरीकों से शरीर के प्रति उपेक्षा और घृणा करने से तथा उसकी निन्दा करने मात्र से शरीर का परित्याग हो जाता है ? अथवा शरीर का निरोध हो जाता है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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