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________________ ७२० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) "दौड़ो-दौड़ो, पकड़ो पकड़ो, चोर भगा जा रहा है"।' चालाक चोर भी उन्हीं शब्दों को दुगुने जोर से दुहराता है-"चोर-चोर, पकड़ो-पकड़ो, वह भागा जा रहा है।" इस प्रकार वह भी दूसरों की ओर चोर होने का इशारा करता जाता है और भले आदमियों की भीड़ में सम्मिलित हो जाता है। ऐसी स्थिति में भीड़ असली चोर को पकड़ने के लिए इधर-उधर भागती रहती है, पर वह किसी की पकड़ में नहीं आता। असली चोर तो चोर को पकड़ते वाले दुर्बलमन वाले सज्जन लोगों की पंक्ति में सिर उठाये खड़ा रहता है। .. ठीक इसी प्रकार दुर्बल मन वाले लोग आत्म-धनहर्ता आम्नव-चोर को पकड़ने के लिए केवल चिल्लाते हैं, पर स्वयं उसे पकड़ने का साहस नहीं कर पाते। आम्नव-चोर भी अधिकांश लोगों के जीवन में व्याप्त होने पर संवरों की भीड़ में मिल जाता है। असाहसिक लोग उसे ही संवर मानने और कहने लगते हैं। इस प्रकार जब तक अवाञ्छनीय आसवों की जड़ें काटने के लिए पराक्रम नहीं किया जाता, तब तक आसव किसी न किसी प्रकार से संवरसाधक की दुर्बलता के छिद्र देखकर घुस जाता है। आम्रवों की जड़ें भी काटनी होंगी आशय यह है कि संवर की सिद्धि के लिए केवल आस्रव के बाह्य कारणों को रोकने और उन्हें खदेड़ने से काम नहीं चलेगा। उससे आग्नवों के मूल स्रोत बंद नहीं होंगे। मूल स्रोतों को बंद किये बिना आम्रवों की जड़ें नहीं कटेंगी। भगवान् महावीर ने आसव की जड़ों को काटने के लिए साथक को निर्देश किया है-"पहले कर्म का भलीभांति पर्यालोचन करके फिर उसकी जड़ों-(मिथ्यात्व, अव्रत प्रमाद, कषाय और योगरूप कर्ममूलों) को उखाड़ने के लिए पराक्रम करो। कर्म का मूल हिंसा (उपलक्षण से असत्यादि पंचानव) है, उसका भलीभांति निरीक्षण करके परित्याग करो। इन सबको (कर्म और कर्म के मूल और उनको काटने के उपाय आदि को) सम्यक् प्रकार से विवेकपूर्वक ग्रहण कर (जानकर), राग और द्वेष इन दोनों अन्तों (सिरों) से अदृश्य (दूर) होकर रहे। मेधावी साधक कर्मों के आनवों को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से संवर में दृढ़तापूर्वक पराक्रम करे, (वैसा पराक्रम करते समय) लोकसंज्ञा (लोकैषणा, विषयैषणा, वित्तैषणा) का परित्याग अवश्य करे। उपर्युक्त कथन का अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त परिज्ञा और विवेक इन दोनों दूरवीक्षण यंत्रों से संवरों की भीड़ में घुसे हुए आम्रवों को भलीभांति जाना जाए और १. अखण्ड ज्योति, मार्च १९७६ से भावांश ग्रहण पृ. ३० २. अखण्ड ज्योति मार्च १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. ३० ३. "कम्मं च पडिलेहाए, कम्ममूलं च ज छणं पडिलेहिय, सव्वं समायाय, दोहि अंतेहि अविस्समाणे तं परिण्णाय मेधावी विदित्ता लोग, वंता लोग सण्णं से मेधावी (मतिम) परक्कमेज्जासि ॥ '-आचारांगसूत्र श्रु.१ अ. ३ उ. १ सू. १११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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