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________________ आस्रव की बाढ़ और संवर की बांध ७१९ कठिन है। इसी आन्तरिक समर्थता या आध्यात्मिक साहसिकता को जैनदर्शन में अनन्त (आत्मिक) शक्ति (अनन्त आत्मवीर्य) कहा है। इसी शक्ति का प्रकटीकरण, अथवा 'संयम (संवर) में पराक्रम' करने को भगवान् महावीर ने मनुष्यत्व, धर्मश्रवण और श्रद्धा से भी बढ़कर दुर्लभतम बताया है। इसी आत्मबल के सहारे से व्यक्ति प्राणवान् बनता है, विजय का सेहरा उसी के सिर पर चढ़ाया जाता है। प्राणवान् का अर्थ जीवित रहने वाला ही नहीं, परन्तु साहसी और पराक्रमी भी होता है। ... ऐसी साहसिकता अथवा अध्यात्ममार्ग में संवर साधना के लिए पराक्रम आम्रवों को हटाने और रोकने में बाधा डालने वाली कठिनाइयों, भीतियों, शंकाओं और प्रलोभनों को चीरते हुए ही आगे बढ़ना सम्भव होता है। नौका पानी को चीरते हुए ही आगे बढ़ती है। इसी प्रकार संवर साधक को भी आसवों को एक बार सम्यक् प्रकार से जान लेने पर उनमें मन-वचन-काया को पिरोये बिना, उनकी ओर उपेक्षा करते हुए झटपट संवरमार्ग पर आगे बढ़ना होता है।' दुर्बलमना साधक जानते हुए भी संवर साधना में पराक्रम नहीं कर पाते ___जो व्यक्ति दुर्बल मनःस्थिति के होते हैं, वे संवर को सुदृढ़रूप से स्थापित करने का साहस और पराक्रम नहीं कर पाते। वे अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को जानते हैं। आसवों के कारण आवृत होने वाली आत्मशक्तियों का वे अभिवर्धन करना चाहते हैं, इसके लिए वे आनवों को हटाना और रोकना चाहते हैं, परन्तु साहस और पराक्रम के अभाव में आनवों के साथ संघर्ष करने और उन्हें हटाने तथा रोकने का उपक्रम नहीं कर सकते। ऐसे लोग आम्नव का तत्त्वज्ञान बहुत बधारते हैं, आम्नवों के आने के कारणों को भी जानते हैं और समय-समय पर गला फाड़कर जोर-जोर से चिल्लाते भी हैं कि 'आसव रूपी चोर आ रहे हैं, घुस रहे हैं, आत्मधन का हरण करने के लिए। पकड़ो इन्हें, भगाओ-खदेड़ो।' परन्तु वे स्वयं आम्नवों से जूझने और उन्हें परास्त करके खदेड़ने का साहस नहीं कर पाते। अन्ततः वे स्वयं को असहाय, असमर्थ एवं हीन अनुभव करते हैं और थक कर संवर के लिए प्रयल करना भी छोड़ देते हैं। . संवरों की भीड़ में आनव चोर संवररूप में ... जैसे घर में घुसे हुए या घुसते हुए चोर को निकल भागते देख दुर्बल मन का मकान मालिक स्वयं चोर को पकड़ने और खदेड़ने के बदले जोर-जोर से चिल्लाता है . (क) अखण्ड ज्योति जनवरी १९७५ से भावांश ग्रहण पृ. ७५ (ख) "चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो। . - माणुसत्तं सूइसद्धा संजमम्मि य वीरियं।" -उत्तराध्ययन अ.३गा.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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