SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१८ ` कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) यह है - आनव के सहायकों और संवर में बाधक कारणों को ज्ञपरिज्ञा से सम्यक् : जानने और प्रत्याख्यान- परिज्ञा से परित्याग करने के पश्चात् संवर में सहायक एवं साधक कारणों के स्वीकार का सर्वोत्तम उपाय । आम्रवों से संघर्ष करके निरस्त करने पर ही संवर की स्थापना संवर-साधना द्वारा आत्म-स्वभाव में स्थिर होने के लिए जहाँ गुप्ति, समिति, क्षमादि दशविध धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहों पर विजय और सामायिक आदि पंचविध चारित्र का पालन- आचरण करना और दृढ़तापूर्वक श्रद्धानिष्ठा के साथ अपनाना जितना अभीष्ट एवं आवश्यक है, वहाँ अव्रत, कषाय, इन्द्रियविषय, क्रिया एवं योग आदि आम्नव सहायक प्रवृत्तियों को उखाड़ फैंकने के लिए अथवा उन्हें रोकने के लिए उतनी ही तत्परता और साहसिकता बरतना भी आवश्यक है। भगवद्गीता के अनुसार वैष्णव (भागवत) धर्म में अवतार के प्रसिद्ध प्रयोजन : मुख्यतया दो बतलाए गए हैं - (१) अधर्म का उन्मूलन और (२) धर्म का संस्थापन। इन्हें ही दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है - अनाचरणीय को निरस्त करके सदाचरणीय की स्थापना करना। व्यवहार चारित्र का लक्षण भी यही बताया गया है- अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र समझो। उद्यान को विकसित करने के लिए वृक्षारोपण करने तथा जलसिंचन एवं खाद देने से पूर्व माली को उस जमीन की निराई, गुड़ाई, छंटाई, रखवाली जैसी कठोर सत् प्रवृत्तियाँ अपनानी पड़ती हैं। " संवर में दृढ़तापूर्वक पराक्रम ही साधना को सुदृढ़ बनाने का उपाय जिसके अन्तःकरण में संवर की दिव्यज्योति का अवतरण करने की अभीप्सा जागृत हो गई है, उसे आनवों की अवांछनीयताओं के विरुद्ध लोहा लेने के लिए पराक्रम करना होगा, संवर में साधक - सहायक ५७ प्रकार के कारणों का अभ्यास एवं अभिवर्धन करने में जुटना होगा। ये दोनों प्रयोजन साथ-साथ चलते हैं, और आन्तरिक साहस द्वारा सम्पन्न होते हैं। संवर का कार्य आनवों से साहसपूर्वक संघर्ष करके उन्हें हटाना और रोकना है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता के लिए पद-पद पर साहसपूर्वक संघर्ष करना होता है। साहसिक मनोभूमि के बिना किसी भी क्षेत्र में अभीष्ट सफलता प्राप्त करना १. सगुप्ति समिति-धर्मानुप्रेक्षा - परीषहजय चारित्रः । - तत्त्वार्थसूत्र अ. ९/२ (ख) देखें, आम्रव के ४२ भेद, इसी निबन्ध में । (ग) अखण्ड ज्योति जनवरी १९७६ से भावांश पृ. ७६ (घ) गीता ४/७८ (ङ) असुहादो विणिवित्ति सुहे पवित्ति य जाण चारितं ॥ Jain Education International " For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy