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________________ नव की बाढ़ और संवर की बांध ७२१ उनकी जड़ों को उखाड़ने का पराक्रम किया जाए, गेहूँ के कणों में से कंकरों को निकालने की तरह संवर के साथ घुसे हुए आनव को चुन-चुनकर निकालने का अप्रमत्त होकर पुरुषार्थ किया जाए। संवरों की भीड़ में प्रविष्ट आस्रवों को ही मनुष्य संवर समझ लेता है। जैसेआम्लव की एक जड़ है - (मिथ्यात्व) मिथ्या दृष्टि । अधिकांश मानव अपने सम्प्रदाय एवं मत-पंथ की गलत परम्परा को मिथ्या समझते हुए भी, पूर्वाग्रहवश पकड़े रखता है, उसी गलत परम्परा का प्रचार करने में अपने पंथ या सम्प्रदाय का गौरव समझता है। जैनदर्शन में उसे गृहीतमिथ्यात्व कहा है। जैसे किसी व्यक्ति ने पशुबलि (या बकरे आदि पशु की कुर्बानी) को धर्म समझ लिया, जो कि सरासर हिंसाजनक पाप (अधर्म) है। इस परम्परागत अधर्म को धर्म समझना गृहीतमिथ्यात्व है। परन्तु वह उसे सम्यक् (सम्यक्त्व एवं धर्म) समझकर पकड़े रहता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अज्ञानता, मूढ़ता या जड़ बुद्धि के वश किसी सत्य बात को ग्रहण ही नहीं करता या ग्रहण ही नहीं कर पाता। वह धर्म क्या है, अधर्म क्या है ? इसे बिलकुल नहीं समझता। इस प्रकार के अगृहीत- मिथ्यात्व को भी कई व्यक्ति नहीं समझने के कारण सम्यक्त्वसंवर को पहचान नहीं पाते । ' इसी प्रकार कई लोगों की (आनव) असंयम के कार्यों में रति (आसक्ति) होती है, उसको वे संयम (संवर) कार्य समझकर उसमें धड़ल्ले से प्रवृत्त होते हैं। उदाहरणार्थकिसी की निन्दा करना, किसी पर मिथ्या दोषारोपण करना, किसी को बदनाम करना, किसी निर्दोष को मारना पीटना, लड़ना-झगड़ना या सताना हिंसा है, आनव है, परन्तु - अपने माने हुए सम्प्रदाय, पंथ या मत की उन्नति, जाहोजलाली एवं गौरववृद्धि के लिए दूसरे मत, पंथ या सम्प्रदाय की या उसके अनुयायी की निन्दा करना, मिथ्या आक्षेप या दोषारोपण करना, बदनाम करना या उसे मारना पीटना, सताना आदि हिंसाजनक नवकार्य को संवर (धर्म) समझकर प्रवृत्ति करना, किन्तु स्वयं धर्म के अहिंसा, • सत्यादि अंगों को जीवन में उतारने का जरा भी पुरुषार्थ न करना, असंयम (अव्रत) में रति और संयम में अरति है। · भगवान् महावीर ने अविरति संबर के साधकों को मार्ग निर्देश करते हुए कहा"वीर (पराक्रमी) पुरुष न तो संयम में अरति को सहन करता है और न ही असंयम में रति को सहन करता है। चूँकि वीर पुरुष विरतिरूप संवर (संयम) के प्रति अन्यमनस्क नहीं होता, इसलिए असंयम (अविरतिरूप आम्रव) में भी अनुरक्त नहीं होता। १. संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं च तं तिविहं । २. (क) अधम्मे धम्म सन्ना । - स्थानांग स्थान १० Jain Education International -धवला १/११९ / गा. १०७ - भगवती आराधना मू. ५६ नारई सहई वीरे, वीरे न सहई रतिं। जम्हा अविमणे धीरे, तम्हा वीरे न रज्जइ । - आचारांग श्रु. १ अ. २ उ. ६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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