SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आम्रव की बाढ़ और संवर की बांध, ७१५ __ जीव नाना योनियों और गतियों में परिभ्रमण करते हुए जिन पाशविक एवं दानवीय वृत्ति-प्रवृत्तियों से अभ्यस्त होता है, उन्हें घटाये-हटाये बिना अप्रमत्त साधक की गरिमा के अनुरूप संवरनिष्ठा की साधना यथार्थरूप से नहीं हो सकती। ___वास्तव में, आत्मा जब विभावों और परभावों से दूर रहकर अथवा विभावों और परभावों में अपने मन-वचन, इन्द्रिय, प्राण आदि. साधनों को प्रवृत्त होते हुए रोककर (निवृत्त होकर) स्व-भाव में-आत्मस्वरूप में अथवा आत्मा के निजी गुणों में प्रवृत्त होता है, तभी भाव-संवर की साधना हो सकती है। पुराने जीर्ण-शीर्ण, कच्चे, तथा हवा और प्रकाश से रहित अन्धकारयुक्त अयोग्य मकान के स्थान पर नया सुदृढ़ तथा हवा एवं प्रकाश वाला मकान बनाने के लिए पुराने अन्धकारयुक्त मकान को तोड़ना-गिराना पड़ता है, तथा नये सिरे से नींव खोदनी पड़ती है, पुराने मकान में क्या-क्या दोष या कमी थी, उसे जानना पड़ता है। __इसी प्रकार आनवों से विकृत, दुर्बल तथा सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन के प्रकाश-पवन से रहित बने हुए जीवन भवन की मन-वचन-कायरूप दीवारों, छतों आदि को गिराना एवं हटाना आवश्यक है, ऐसा किये बिना संवर का सुदृढ़ जीवन भवन स्थापित नहीं हो सकता। नैतिक साहसी व्यक्ति दृढ़तम संवरसाधना कर सकते हैं, साहसहीन नहीं कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से समर्थ होते हैं, कई बौद्धिक दृष्टि से सक्षम होते हैं, कई मानसिक दृष्टि से सुयोग्य विचारक होते हैं, परन्तु उनमें नैतिक हिम्मत नहीं होने से वे किसी भी महत्वपूर्ण आध्यात्मिक कार्य को करने से कतराते हैं। वे आवश्यक साहस जुटा कर यथायोग्य कदम नहीं उठा पाते। विविध शंका-कुशंकाओं से ग्रस्त रहने तथा वितर्क-कृतकों से घिरे रहने से, पद-पद पर उन्हें आध्यात्मिक कार्यों में असफलताएँ और असम्भावनाएँ डराती रहती हैं। जरा-सी कठिनाई अथवा विपत्ति आने पर वे घबराने और डरने लगते हैं। उनके पैर उस महत्वपूर्ण कार्य को करने में लड़खड़ाते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति आध्यात्मिक प्रगति के लिए संवर-साधना का उपयुक्त अवसर सामने आने पर भी उसे खोते रहते हैं और विविध कुकल्पनाओं के जाल बुनते रहते हैं। इसके विपरीत साहसी और मनोबली व्यक्ति स्वास्थ्य, शिक्षण, साधन एवं उपयुक्त अवसर न होने पर भी साहसपूर्ण कदम उठाते हैं, और भौतिक या लौकिक (व्यावहारिक) क्षेत्र में भी आशातीत सफलता प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिक एवं लोकोत्तर क्षेत्र में भी शारीरिक स्वस्थता, बौद्धिक क्षमता, साधनों तथा उपयुक्त अवसर के अभाव में भी श्रद्धा और निष्ठापूर्वक आम्नवों से १. अखण्डज्योति जनवरी १९७६ से यत्किंचिद् भावांश ग्रहण पृ. ७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy