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________________ ७१६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) जूझकर उहें खदेड़ देते हैं, संवर की दृढ़ भूमिका स्थापित कर देते हैं। बाहरी शत्रुओं से लड़ने के लिए जितना साहस, शौर्य, तथा युद्ध-कौशल चाहिए, उतना ही शौर्य, साहस एवं आध्यात्मिक युद्ध कौशल आत्मा में जबरन घुस जाने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रमाद, अज्ञान आदि आम्रव के स्रोत रूप आन्तरिक शत्रुओं से जूझ और उन्हें परास्त करके खदेड़ने के लिए आवश्यक है। ' संवर साधकों को भ. महावीर का आन्तरिक युद्ध का आह्वान भगवान् महावीर ने संवरसाधकों को इस आन्तरिक युद्ध के लिए आह्वान करते हुए कहा-(हे साधक !) इसी (कर्म-शरीर या कर्मशत्रु) के साथ युद्ध कर। बाह्य शत्रुओं के साथ युद्ध करने में तुझे क्या मिलेगा ? आन्तरिक (भाव) युद्ध के योग्य (साधन या कौशल) अवश्य ही दुर्लभ हैं। जैसे कि मार्गदर्शन-कुशल (तीर्थंकरों) ने इस (भावयुद्ध) के लिए परिज्ञा और विवेक, (ये दो शस्त्र) बताए हैं। इसका रहस्योद्घाटन करते हुए वृत्तिकार कहते हैं- "लोकव्यवहार में सिंह के साथ लड़ना, बाह्य शत्रुओं के साथ युद्ध करना, या किसी को पछाड़ना तो सुगम है, किन्तु आन्तरिक शत्रुओं के साथ जूझना बहुत कठिन है ।" भगवान् कहते हैं-'यहाँ पूर्वोक्त प्रकार का बाह्ययुद्ध नहीं करना है, अपितु आन्तरिक युद्ध करना है। यहाँ आत्मा के गुणों को विकृत एवं आवृत करने वाले आन्तरिक शत्रुओं-कर्मों या कर्मशरीर से लड़ना है। यह औदारिक शरीर, जो मन, वचन और इन्द्रियों के शस्त्र लिये हुए है; कषायों और राग-द्वेषों से मिलकर जो तुम्हें संसार परिभ्रमण कराता है, जो विषय-सुखलिप्सु और स्वेच्छाचारी बनकर तुम्हें नचा रहा है, उसके साथ लड़ो, और कर्मों तथा कर्मशरीर के साथ युद्ध करो। वही वृत्तियों के माध्यम से तुम्हें अपना दास बना रहा है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर, माया (छल-कपट) मोह आदि सब कर्मशत्रु की सेना है। इसलिए तुम्हें कर्म-शरीर (कर्म) और स्थूलशरीर के साथ आन्तरिक युद्ध करके कर्मशत्रुओं को परास्त करना है । किन्तु इस भाव-युद्ध के योग्य सामग्री का प्राप्ति होना अत्यन्त दुष्कर है।" आन्तरिक (भाव) युद्ध के लिये दो शस्त्र बताए हैं- परिज्ञा और विवेक । परिज्ञा से साधक-बाधक वस्तु का सर्वतोमुख ज्ञान करना है और विवेक से उसके (बाधक के) पृथक्करण का दृढ़ साहस एवं दृढ़ मनोभाव करना है।" १. अखण्डज्योति जनवरी १९७६ से किंचिद् भावांश ग्रहण, पृ. ७५ २. (क) इमेणं चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ ? जुद्धारिहं खलु दुल्लहं । जहेत्य कुसलेहिं परिण्णा - विवेके भासिते । - आचारांग श्रु. १, अ. ५, उ. ३ (ख) आचारांगसूत्र ( आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) श्रु. १, अ. ५, उ. ३, सू. १५९ का विवेचन, पृ. १६४-१६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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