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________________ ७०८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) आनव नहीं। आम्नव तो आत्मा की जागृति को, उपयोग को, समता को तथा सम्यग्ज्ञान की किरणों को रोकता है। वह आत्मा को अज्ञानान्धकारमय बना देता है। उसमें मूर्च्छा मोहमूढ़ता एवं विकृति, प्रमत्तता, असंयमवृत्ति उत्पन्न कर देता है। इसलिए वह आत्मा के लिए वांछनीय, उपादेय या अपेक्षणीय नहीं है। किन्तु जब द्वार खुला होता है तो कोई न कोई विजातीय, अवांछनीय या हेय तत्त्व भी अंदर प्रविष्ट हो जाता है। आत्मा उसे रोक नहीं पाता । पूर्वोक्त प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय (राग-द्वेष) से युक्त अनन्त अनन्त परिणामों की धारा से तीव्ररूप में प्रविष्ट होता है। मिथ्यात्व आनव की बाढ़ : सम्यक्त्व संवर की बाँध आम्रव की इस बाढ़ का पहला प्रवाह मिथ्यात्व है। इससे आत्मा का सम्यग्दर्शन लुप्तप्राय हो जाता है। वह स्व-पर का भेदविज्ञान (विवेक) नहीं कर पाता । अतत्त्व को तत्त्व, अधर्म को धर्म, जीव को अजीव और अजीव को जीव समझने लगता है। आत्मापरमात्मा, स्वर्ग-नरक आदि लोक-परलोक, कर्म-विकर्म-अकर्म, या पुण्य-पाप, धर्म आदि को कुछ भी नहीं समझता । परन्तु जब आत्मा में स्व-बोध की जागृति आती है, स्व-पर-पदार्थ या स्वभावविभाव का ज्ञान होता है, तब वह मिथ्यात्व - आनव की बाढ़ को रोक देता है, सम्यक्त्वसंवर की बांध बनाकर। मिथ्यात्व का तिमिर बिन्दु लुप्त हो जाता है, जागृति और स्वानुभूति का प्रकाश बिन्दु उभरता है। मूर्च्छा की सघन लहरें, जो आत्मा पर छायी हुई थीं, वे हटने लगती हैं, सम्यक्त्वसंवर का सूर्योदय हो जाता है। राग-द्वेष, कषाय एवं मिथ्यात्वमोह की तीव्र ग्रन्थी टूटने लगती है। जो ग्रन्थी पहले कभी टूटी नहीं थी, पहले ही टूटी है, चित्त पर राग-द्वेष की मलिनता की जो तीव्र पर्त छाई हुई थी, वह चित्तनिर्मलता के रूप में प्रथम बार ही परिणत होती है। मिथ्यात्व का जो सघनतम अन्धकार था, वह पहली बार टूटता है। ज्यों-ज्यों स्वानुभूति आगे बढ़ती है, स्पष्ट होती जाती है, त्यों-त्यों मोह-मूर्च्छा की सघनता कम होती जाती है, सम्यक्त्व संवर अपने समस्त अंगोपांगों के साथ सदलबल आत्मा में मिथ्यात्व की बाढ़ को रोकने के लिए बाँध बन जाता है। मिथ्यात्व के पाँच, दस या पच्चीस' जितने भी प्रकार हैं, तथा उनसे समुद्भूत होने वाले जितने भी मिथ्या-परिणामों के प्रवाह हैं उन्हें सम्यक्त्व संवर रोक देता है। जागृत आत्मा मिथ्यात्व - आनव को आगे बढ़ने से रोकने के लिए सम्यक्त्व संवर को अपनाता है। / १. (क) पंचविध एवं दशविध मिथ्यात्व के लिए देखें - स्थानांगसूत्र पंचम एवं दशम स्थान । (ख) पच्चीस प्रकार के मिथ्यात्व के लिए देखें - आवश्यक नियुक्ति एवं हारिभद्रीय वृत्ति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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