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________________ - आम्रव की बाढ़ और संवर की बांध ७०९ अविरति आस्रव की बाढ़ : विरति (व्रत) संवर की बाँध इसके पश्चात् अविरति या अव्रत (असंयम) आस्रव की बाढ़ मुख्यतया हिंसादि पाँच तथा फिर उनके भेद-प्रभेद एवं उनसे सम्बन्धित परिणामों की असंख्य धाराओं के रूप में आत्मा में प्रविष्ट होने लगती है, तब यदि आत्मा की स्वानुभूति, स्व-परभेदविज्ञान, या अनन्तज्ञानादि गुणों का भान (जागृति) अधिक स्पष्ट हो जाती है, तो वह हिंसा आदि अव्रतों को तथा शरीरादि परभावों को स्पष्ट समझने लगता है, उसके राग-द्वेष आदि परिणाम भी मन्द होने लगते हैं, उसकी परवस्तुओं के प्रति ममता, मूर्छा, आसक्ति आदि कम होने लगती है, चारित्र में रुचि दृढ़ हो जाती है। तब वह व्रत-महाव्रत, समिति-गुप्ति, क्षमादि दशविध धर्म या सम्यग्दर्शनादि रलत्रयरूप धर्म का पालन करने के लिए तत्पर होता है। अन्तरंग में ज्ञानादि स्वभावों में स्थिरतापूर्वक रमण करने लगता है, ऐसी स्थिति में द्वितीय अव्रत आसव-प्रवाह की बाढ़ को जीव विरति रूप या व्रतरूप संवर की उपर्युक्त बाँध द्वारा आने से रोक देता है। प्रमाद-आस्रव की बाढ़ : अप्रमाद संवर की बांध - किन्तु व्रत-महाव्रत, नियम, त्याग, धर्माचरण, तपश्चरण, समिति-गुप्ति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, कषायविजय, इन्द्रिय-विषयों के प्रति रागद्वेष मन्दता आदि व्रतसंवर के रूप में स्वीकार करने पर भी पूर्वकृत मोहकर्मवश, अथवा ज्ञानावरणीय कर्मोदयवश श्रुत चारित्रधर्म के पालन में शैथिल्य, मन्दता, अनिश्चलता, अस्थिरता, मदादि प्रमादवश प्रमत्तता, अजागरूकता आदि प्रमाद-आसव के तृतीय प्रवाह की बाढ़ आत्मा में यदा-कदा प्रविष्ट हो सकती है। अजागृत व्यक्ति व्रतादि स्वीकार करने पर भी विभित्र प्रमादों के प्रवाह में बह सकता है। किन्तु जब व्यक्ति स्व-भाव एवं स्वरूपाचरणरूप चारित्र में दृढ़ हो जाता है, सदैव जागरूक और सावधान होकर, अपनी समस्त प्रवृत्तियों पर यतना (यलाचार - उपयोग) का अंकुश रखता है, राग-द्वेष कषायाविष्ट न होकर ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहता है। कर्मचेतना और कर्मफलचेतना की ओर से झुकाव हटाकर एकमात्र ज्ञानचेतना (स्वानुभूति) में लीन रहता है, तब अप्रमाद संवर की बांध से प्रमाद-आस्रव की बाढ़ को रोक देता है, और उसकी आत्मा में अप्रमाद संवर की बांध दृढ़ होती जाती है। पाय-आस्रव की बाढ़ : अकषाय संवर की बाँध ।। इतना हो जाने पर भी अभी कषायों की बाढ़ को पूर्णतया रोकने की स्थिति निर्मित नहीं हुई है। सोलह कषाय और नौ नोकषाय, इन पच्चीस कषायों में से यद्यपि चार संज्वलन के कषाय अभी विद्यमान हैं। किन्तु अप्रमत्त आत्मा अहर्निश जागरूक सोलह कषाय और नौ नोकषाय के लिए देखें 'आसव के पांच द्वार' नामक निबन्ध। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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