SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आम्रव की बाढ़ और संवर की बांध ७०७ फिर भी पर्वोक्त विवरण के अनुसार अधिकांश व्यक्ति मिथ्यात्वादि चतुर्विध भावानव और योगादि द्वारा कर्मपुद्गलरूप में परिणत द्रव्याम्नवों की बाढ़ को रोक नहीं पाते, न ही रोकने का विचार एवं चिन्तन उनमें होता है, न ही रोकने की सम्यक् बुद्धि होती है। फलस्वरूप एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों की तरह वे भी आसवों की बाढ़ से पीड़ित होते रहते है।' उनके जीवन की बहुमूल्य अनन्तज्ञानादि चतुष्टयसम्पदा बर्बाद होती रहती है। उनके मन, इन्द्रिय, प्राण आदि बहुमूल्य साधनों की शक्तियाँ संवर के द्वारा आत्म-विकास की अपेक्षा आत्मगुणों के विनाश में लगती हैं। कर्मानवों और संवरों का कार्य एक दूसरे से विरुद्ध ___कर्मानवों का कार्य है-चेतना को मूर्छित, मोहित, किंकर्तव्यविमूढ़, कुण्ठित एवं विकृत कर देना और संवर (कर्म निरोध) का कार्य है-जागृत एवं सावधान रहकर पूर्वोक्त प्रकार से आते हुए कमों को रोकने (संवरण) का और चेतना को अपने स्वरूप में स्थिर रखने का। ... कर्मविज्ञान सांसारिक जीवों के इन दोनों रूपों को प्रस्तुत करता है-आस्रव को भी और उसके प्रतिरोधी संवर को भी। एक ओर आसव की सेना है, तो दूसरी ओर संवर की भी सुसज्जित एवं आम्नव प्रतिरोधक सेना है। आनव सर्वथा हेय, संवर उपादेय : क्यों और किस प्रकार? जैन कर्म-विज्ञान के सन्दर्भ में वीतराग अर्हत्परमात्मा की आज्ञा का उल्लेख करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-भगवन् ! आपकी सदाकाल के लिए हेय और उपादेय विषयक आज्ञा इस प्रकार है कि आम्रव सर्वथा हेय है और संवर उपदेय है।"३ ____ यह तथ्य है कि कर्मविज्ञान ने आनवों के असंख्य प्रवाहों से तीव्रगति से आती हुई, तथा आत्मप्रदेशों में प्रविष्ट होती हुई हेयरूप बाढ़ का भी स्वरूप बताया है, और आम्रवों के पूर्वोक्त असंख्य प्रवाहों से आती हुई कर्मानवों की बाढ़ को रोकने के लिए संबर के पाँच, बीस, बयालीस या सत्तावन प्रकारों तथा संवरकर्ता की अनन्त परिणामधाराओं की बाँध का भी उपादेयरूप में उल्लेख किया है। संक्षेप में-जैनकर्मविज्ञान ने मोक्ष (परमात्मपद) के लिए बाधक और साधक, हेय और उपादेय, दोनों तत्त्वों का संगोपांग निरूपण किया है। आस्रव और संवर दोनों एक दूसरे के लिए विजातीय हैं। यह निश्चित है कि मात्मा की जागृति, विकास एवं स्वरूप में स्थिरता के लिए उपादेय तत्त्व संवर ही है, देखें-उत्तराध्ययन अ. ३/७-३१ है. कर्मवाद से किंचिद् भावांश ग्रहण पृ. ९४ आकालमियमाज्ञा ते हेयोपादेयगोचरा। आश्रवः सर्वथा हेयः, उपादेयश्च संवरः॥ -वीतरागस्तव १९/५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy