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________________ आम्नव मार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी ६९९ कहते हैं-“कालक्रम से कदाचित् (अनन्तजन्मों के पश्चात् ) मनुष्यगति निरोधक क्लिष्ट कर्मों का क्षय हो जाने से जीव जब तदनुरूप आत्मशुद्धि को प्राप्त करते हैं, तभी मनुष्यता ( मनुष्यजन्म) को प्राप्त कर पाते हैं।" अदूरदर्शी आनवप्रिय व्यक्ति इस सुरदुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्ति के सौभाग्य का महत्व नहीं समझते और इस बहुमूल्य उपहार को पेट, प्रजनन, भोगासक्ति, सुखसुविधा, प्रमाद आदि पशुप्रवृत्तियों में नष्ट कर डालते हैं। उन्हें कभी यह विचार नहीं आता कि एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंच आदि पंचेन्द्रिय तक की कितनी लम्बी भवभ्रमण यात्रा करने के पश्चात् मनुष्य जन्म मिला है, उसे संवर मार्ग पर लगाकर अपना भविष्य उज्ज्वलतम बनाना था, परन्तु आस्रवप्रिय व्यक्ति की अदूरदर्शिता की करतूत के कारण प्रस्तुत सर्वश्रेष्ठ उपहार से लाभान्वित होने के बजाय शुभाशुभ कर्मानवों की गठरी सिर पर लाद कर वे पुनः उसी अनन्त संसार की परिक्रमा करते रहते हैं। ' दो प्रकार की नौका के रूपक द्वारा आनवप्रिय और संवरप्रिय की पहचान एक गहरा समुद्र है। वह लबालब पानी से भरा है। समुद्र को पार करके दो प्रकार के, दो दृष्टि और विचारधारा वाले व्यक्ति उस पार जाना चाहते हैं। उनमें से एक यात्री ऐसा है, जिसकी नौका बहुत ही खूबसूरत है, चारों ओर से विचित्र चित्रों और रंगों से शोभायमान हैं। नौका में आराम से बैठने के लिए स्प्रिंगदार लचीली सीटें लगी हुई हैं। यथास्थान खिड़की, दरवाजे, कीमती पर्दे, आरामदेह गद्दे और हवा के लिए हाथ पंखे भी लगे हुए हैं। परन्तु ज्यों ही वह यात्री नौका को खेना शुरू करता है, त्यों ही देखता है कि उस नौका के पेंदे में अनेक छेद हैं, उनमें पानी तीव्रता से भरता जा रहा है। कुछ ही देर में उन छिद्रों में से प्रविष्ट होता हुआ पानी नौका में प्रचुर मात्रा में भर गया । किन्तु जो यात्री है, वह लापरवाह होकर नौका में भरे हुए पानी को न तो उलीचकर बाहर निकालता है, ..और न ही नौका को डूबने से बचाने का अथवा छिद्रों के बंद करने का पुरुषार्थ करता है, वह यों ही नशे में धुत्त मनुष्य की तरह अपनी नौका को चलाता जाता है। वह नौका की कोई सार संभाल नहीं करता, किन्तु चाहता है वह समुद्र को पार करना; भला ऐसी स्थिति में छिद्रयुक्त जर्जर नौका को लेकर वह कैसे विशाल समुद्र को पार कर सकता है ? पार होना तो दूर रहा, वैसी छिद्रवाली नौका उसे मझधार में ही डुबा देगी ! छिद्र वाली नौका कभी पारगामिनी नहीं हो सकेगी। किन्तु दूसरा समुद्रयात्री बाहोश है, विवेकी है, कष्टसहिष्णु है। उसने रूप-रंग में सुन्दर नौका पसन्द नहीं की। उसने नौका की सुदृढ़ता और उसकी पारगामिनी क्षमता १. (क) कम्माणं तु पहाणार आणुपुब्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुपत्ता आययंति मणुस्सयं ॥ (ख) अखण्डज्योति मार्च १९७८ से भावांश ग्रहण पृ. २८ Jain Education International For Personal & Private Use Only - उत्तराध्ययन ३/७ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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